बधाई उन बच्चों को जिनकी मुर्गी ने पहला सुनहरा अण्डा दिया

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मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

अबोला दर्द

बेहद गर्मी थी, उफ! ये मई का महीना। हाल यह कि पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिल रहा। भरी दुपहरी में जब लोग पंखे कूलर में सो रहे थे तब अकेला बबलू कंचे खेलने में मशगूल था। उसके ललाट से पसीना रिसता हुआ गालों तक आ रहा था।
एक दो तीन चार....... बबलू ने कंचे गिनना शुरू किया। पूरे 15 कंचे उसकी मुट्ठी में बंद थे। हरे, नीले, लाल, पीले, नारंगी रंग के कंचे में एक था नारंगी हरी सफेद धारियों वाला बबलू का सबसे प्यारा कंचा। उसे अलग निकाल बबलू ने उसे चुम्मा दिया- ‘‘आ हा! मेरे प्यारे कंचे। सबसे पकौड़ा।’’ कुल दस कंचे गिनकर उसने निकर की जेब के हवाले किये। बाकि के गोल मटोल कंचों को आंगन में बनी ‘गुच्च’ की ओर उछाल दिया। सभी कंचे बिखर गये और एक कंचा गुच्च में जा गिरा। बबलू ने अपना प्यारा तिरंगा कंचा हाथ में रखे हुए था। उसने निशाना साधा और नीचे गिरे कंचे पर कंचा दे मारा।
गर्मी की तपन और पसीने की चुहन से बेखबर बबलू निशाने पर निशाने साध रहा था। इतने में छत की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर फड़फड़ाहट की आवाज आयी। खेल छोड़ बबलू का ध्यान जीने की ओर गया। देखा, खून से लथपथ एक घायल कबूतर वहां गिरा पड़ा है। बहता हुआ खून देख उसकी चीख निकल गई-
‘‘दीदी · दीदी · · जल्दी आओ · ’’
बबलू की चीख सुन उसकी बहन बाहर की ओर लपकी - ‘‘क्या हुआ बबलू? तुम ठीक तो हो भैया।’’

‘‘दीदी, दीदी देखो, यहां एक घायल कबूतर आ गिरा है।’’ बबलू ने कबूतर की ओर इशारा करते हुए कहा।
‘‘देखूं तो कहां? ओह! इस बिचारे को तो किसी ने जख्मी कर दिया है।...... बेचारे के बहुत खून बह रहा है।’’ कहते हुए शायदा ने कबूतर को सावधानी पूर्वक उठा लिया।
‘‘आओ, अन्दर कूलर की हवा में इसे ले चलते है। वहीं इसकी पट्टी बांधते है।’’
‘‘दीदी पूजाघर से रूई ले आऊं?’’
‘‘हां, साथ में डिटोल भी’’
बबलू दौड़कर रूई का फाहा, डिटोल और पट्टी के लिए पुराना साड़ी का फॉल उठा लाया और घाव से रिसता खून फाहे से पौछने लगा। दोनों पंखों के बीच, गर्दन के नीचे पूरा मांस बाहर निकल आया था। शायदा ने फॉल को लपेटकर कसकर पट्टी बांध दी। कबूतर बराबर फड़फड़ा रहा था।
‘‘दीदी, बेचारे के बहुत दर्द हो रहा होगा।’’ बबलू ने दर्द में डूबकर कहा।
‘‘हां, जाकर एक कटोरी में पानी ले आ, यह प्यासा भी होगा।’’ बबलू दौड़कर पानी ले आया। वे कबूतर को पानी पिलाने की कोशिश करने लगे पर उसने चोंच गीलीकर बाहर निकाल ली। बंधी हुई पट्टी खून से गिली हो गई शायदा बोली- ‘‘ कहीं बेचारा मर न जाय। चल बबलू, इसे अस्पताल ले चलते है।’’
‘‘इसे अस्पताल?’’
‘‘हां जानवरों के अस्पताल। मैं जानती हूं यहां से थोड़ी दूर ही है।’’ शायदा चिंतित होते बोली।
‘‘वहीं, सरकारी पशु चिकित्सालय न! जिसमें टॉमी को ले जाया जाता था।’’
‘‘हां वहीं, चल जल्दी कर। कहीं बेचारे की जान ही न निकल जाए। चलो तुम मेरे पीछे इसे लेकर स्कूटी पर बैठ जाना।’’
‘‘दीदी तुम स्कूटी चलाओगी?’’
‘‘हां हां, क्यों नहीं। इतना तो मुझे चलाना आता है। इस बिचारे की जान जो खतरे में है।’’
दोनों भाई बहन स्कूटी पर सवार होकर पशु चिकित्सालय की ओर निकल पड़े। बीच में चौराहा आ गया। दोपहरी का समय था इसलिए चौराहा लगभग खाली था। शायदा को अस्पताल पहुंचने की जल्दी थी अत: उसने लालबत्ती होने के बावजूद भी सड़क क्रॉस करनी चाही। उसे ऐसा गलत करते देख ट्रेफिक पुलिस ने सीटी बजाई और उसे बीच चौराहे में ही रोक लिया।
‘‘ऐं लड़की! क्या बत्ती दिखाई नहीं पड़ती?’’ पुलिस वाला सख्ती से बोला।
‘‘दिख तो रही है पर इमरजेंसी है इसलिए....’’
‘‘कैसी इमरजेंसी? तुमने हेलमेट तक नहीं पहना। ट्रेफिक कानून को तोड़ती हो। अभी चालान बनाता हूं।’’
‘‘पुलिसजी हमें माफ कर दो। गलती हो गई। इमरजेंसी नहीं होती तो मैं कदापि कानून नहीं तोड़ती। बिचारी एक नन्हीं सी जान पर बन आयी है....’’
‘‘.....देर हो गई तो यह मर जायेगा।’’ दीदी का अधूरा वाक्य पूरा करते हुए बबलू ने खून से लथपथ कबूतर को आगे हाथ बढ़ाकर पुलिस वाले को बताया। ट्रेफिक पुलिस वाले की नजर कबूतर पर गिरी तो वह चौंका-
‘‘यह क्या है?’’
‘‘घायल कबूतर। पुलिस भैया, यह घायल हुआ हमारे घर के आगंन में आ गिरा।’’
‘‘ओह! बच्चों, चलो जल्दी करो। इसे जल्दी से अस्पताल पहुंचाओ। पर ध्यान रखना आईंदा सड़क कानून का उल्लघंन करोगे तो जुर्माना तो करूंगा ही, लॉकअप में भी बंद कर दूंगा।’’
‘‘ठीक है भैया अब दुबारा गलती नहीं होगी। हमें जाने दो...।’’
‘‘जाओ जल्दी पहुंचों। कहीं बेचारे की जान ही न निकल जाय।’’
जब वे दोनों अस्पताल पहुंचे तो पता चला अस्पताल बंद हो चुका है। डॉक्टर घर जा चुका है।
‘‘ओह! क्या यहां आपत्तकालीन सेवाएं नहीं उपलब्ध है?’’
‘‘हैं क्यूं नहीं’’ कहते हुए पीछे के दरवाजे से एक व्यक्ति ने आते हुए आगे पूछा, ‘‘कहो, क्या बात है। मैं यहां का कम्पाऊंडर हूं।
‘‘ओह! आप मिल गये अच्छा हुआ। इस कबूतर को देखिए।’’ बबलू ने दोनों हाथों के बीच लगभग बेजान हुए कबूतर को आगे बढ़ाते हुए कहा। जख्मी पक्षी देख कम्पाऊंडर ने उसके हाथ से कबूतर ले लिया और देखने लगा। मामले की गम्भीरता को देखते हुए उसने तत्काल एक कक्ष खोल दिया और कबूतर की जांच करने लगा। ‘‘खून बहुत बह गया है बच्चों। कुछ कहा नहीं जा सकता। डॉक्टर को बुलाना होगा शायद तत्काल ऑपरेशन करना पड़े। यह देखो इसके घाव में पीली धातु का यह टुकड़ा गड़ा हुआ है।’’ दोनों भाई-बहन झुककर स्ट्रेचर पर लेटे कबूतर को देखने लगे।
‘‘अब क्या होगा?’’ बबलू ने अधीरता से पूछा।
‘‘डॉक्टर को बुलाना होगा। तुम फिक्र मत करो बच्चों मैं अभी डॉक्टर को फोन करके बुलाता हूं।’’ कम्पाऊंडर ने जेब से मोबाईल निकाल कर फोन लगाया। डॉक्टर से बात हुई।
‘‘अभी डॉक्टर को आने में वक्त लगेगा। जितने मैं इसका घाव साफ करके प्राथमिक चिकित्सा कर देता हूं।’’ कम्पाऊंडर के सधे हाथ कबूतर के घाव की सफाई करने लगे। लगभग 10 मिनिट बाद डॉक्टर आ गये। उन्होंने कबूतर का तत्काल ऑपरेशन किया और पीले धातु के टुकड़े को निकालकर बिखरे मांस को ठीक कर टांके लगा दिये। उस पीले
धातु के टुकड़े को उठाकर डॉक्टर ने परखा- ‘‘यह तो किसी गोली का खोल लग रहा है। गोली तो शायद मांस को छिलती हुई आगे निकल गई किन्तु उसका खोल मांस फटने से भीतर ही धंसकर अटक गया लगता है।’’
‘‘डॉक्टर सा. इस बेजुबान को किसने गोली मारी होगी?’’
‘‘देखो, ध्यान से देखो। इस खोल पर बहुत बारीक अक्षर में कुछ अंकित र्र्है।’’
‘‘जरा पढ़कर देखती हूं कहते हुए शायदा ने वह टुकड़ा उठा लिया। ‘‘यह तो पड़ौसी देश का नाम लिखा हुआ है। जरूर दुश्मनों ने इसपर अपना निशाना साधा होगा।’’
‘‘डॉक्टर सा. क्या यह ठीक हो जायेगा? इसकी जान बच जायेगी?’’
‘‘अब यह खतरे से बाहर है। इसे यहां तीन दिन भर्ती रखना पड़ेगा बच्चों। फिर चाहे इसे तुम ले जा सकते हो। इस पर दया दिखाकर यहां ले आये यह बहुत अच्छा किया तुमने। तुम बहुत अच्छे बच्चे हो।’’ कहते हुए डॉक्टर सा. ने उनकी पीठ थपथपा दी।
‘‘क्या इसे देखने हम यहां रोज आ सकते है?’’ बबलू ने पूछा तो डॉक्टर ने कहा-
‘‘हां हां, क्यों नही।’’
‘‘हम रोज इससे मिलने आया करेंगे डॉक्टर साहब।’’
‘‘हां, परन्तु जल्दबाजी में नहीं ट्रेफिक नियमों की पालना करते हुए आना।’’