बधाई उन बच्चों को जिनकी मुर्गी ने पहला सुनहरा अण्डा दिया

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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

बात छोटी सी

टीटू गिलहरी और चिंकी चिड़िया दोनों पड़ोसिन थी। टीटू का घर पेड़ की खोखल था और चिंकी का घोंसला पेड़ की शाखाओं पर। चिंकी जब दाना चुगने जाती तब टीटू सभी बच्चों का ध्यान रखती।
एक दिन बच्चे आपस में झगड़ने लगे। टीटू के बच्चों का कहना था कि पेड़ उनका है। चिंकी के बच्चे भी यही बात दोहरा रहे थे कि पेड़ उनका है।
लड़ते-लड़ते बच्चों में झगड़ा बढ़ गया। टीटू के बच्चों ने चिंकी के बच्चों के शरीर में अपने पंजे चुभा दिए तो चिंकी के बच्चों ने टीटू के बच्चों की पूंछ खींच ली। टीटू के बच्चे दर्द से चिल्लाने लगे। चिंकी के बच्चों के भी खून बहने लगा यह देख टीटू उन्हें समझाने लगी -
‘‘हम पड़ौसी है। हमें मिलजुल कर रहना चाहिए....’’
‘‘किन्तु मां चिंकी चिड़िया के बच्चे सब फलों को झूठा कर देते हैं, भला हम झूठे फल क्यों खाएं, जबकि पेड़ हमारा है।’’ टीटू के बच्चे एक स्वर में बोले।
‘‘तुम कैसे कह सकते हो कि ये पेड़ तुम्हारा है?’’ चिंकी के बच्चों ने प्रश्न किया।
हम पेड़ के तने में रहते है। हमारा जन्म इसी खोखल में हुआ। पेड़ का तना हमारा तो शाखाएं हमारी। शाखाएं हमारी तो फल हमारे। टीटू के बच्चों ने जवाब दिया।
यह सुन चिंकी के बच्चे फुर्र से उड़कर शाखाओं पर जा बैठे और कहने लगे पेड़ हमारा है। इसकी टहनियों पर हमारा बसेरा है। इस पर हमारा नीड़ बना हुआ है। जिसमें हमने आंखे खोली। हम तुम्हे टहनियों तक नहीं आने देंगे और न ही इसके फल खाने देंगे।
टीटू गिलहरी यह सुन बड़ी परेशान हुई। बच्चे लड़ाई पर उतारू थे और एक दूसरे को पेड़ से भगाना चाहते थे। वह उन्हें समझाने लगी-
बच्चों, मेरी बात सुनो। बात उस समय की है जब तुम लोगों का जन्म भी नहीं हुआ था। मैंने और चिंकी ने अण्डे दिए अभी एक दिन भी नहीं गुजरा था कि आसमान में अंधेरा छा गया। तेज हवाएं चलने लगी। डर के मारे चिंकी शोर मचाने लगी। उसे डर था कि शाखाएं हिलने से उसका घोसला नीचे गिर जाएगा। घोंसला गिर जाएगा तो फिर उसमें रखे अण्डे भी गिर कर फूट जायेगे।
तब मैंने और चिंकी ने मिलकर अण्डों को खोखल में सुरक्षित रख दिए। अभी कुछ देर हुई थी कि पानी बरसने लगा। पानी इतना बरसा, इतना बरसा कि नीचे बहता हुआ पानी हमारे घर तक पहुंचने लगा।
हमें फिर चिंता होने लगी। हमारा घर डूब गया तो ये पानी अण्डे बहा ले जायगा। तब मैंने और चिंकी ने मिलकर सभी अण्डों को घोंसले में पहुंचाया। फिर हम दोनों ने पत्तों से घोंसले को ढक दिया। जैसे-तैसे रात बीती। सुबह पौ फटने के बाद हमने राहत की सांस ली। बरसात बंद हो चुकी थी। देखा बच्चों हमने एक दूसरे के सहारे आंधी बरसात को झेला था। तब से अब तक हम अच्छे पड़ौसियों की तरह आपस में मदद करते आये हैं।
‘‘पड़ौसी एक दूसरे के काम आते हैं और सुख-दुख के साथी है बच्चों।’’ अब तक चिंकी चिड़िया भी दाना चुगकर लौट आयी थी। सभी बच्चों में बराबर अनाज के दाने बांटते हुए बोली।
परन्तु बच्चे कहने लगे, चिंकी चिड़िया को यह पेड़ छोड़ना होगा। अपने बच्चों के साथ कहीं ओर चली जाए। चिंकी के बच्चे भी यही बात अपनी मां के सामने दोहरा रहे थे।
दोनों की माताएं समझा-समझाकर थक गई पर बच्चे नहीं माने। अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहे। अंत में टीटू और चिंकी दोनों ने पेड़ छोड़ने का मन में विचार बना लिया।
उधर बिल में छिपा सांप कब से यह तमाशा देख रहा था। आज उचित मौका देखकर वह बाहर निकला और पेड़ पर चढ़ने लगा। उसने सोचा पहले गिलहरी के बच्चों को निगलेगा फिर चिड़िया के बच्चों को। बहुत दिनों से वह इनके नरम नरम मांस खाने की फिराक में था किन्तु इनकी मैत्री को देखते हुए यह संभव नहीं हो रहा था।
सांप को पेड़ के तने पर चढ़ते हुए चिंकी चिड़िया ने देख लिया। वह जोर से चिल्लाई,
सावधान टीटू बहन, सांप ऊपर आ रहा है। अपने बच्चों को बचाना। ‘‘उन्हें मेरे घोंसलें में छिपा दो’’ - कहने के बाद वह पेड़ के तने पर चोंचे मारने लगी।
जहां जहां चिंकी की चोंच लगी पेड़ से गाढ़ा चिपचिपा दूध बहने लगा। चिपचिपे गोंद के कारण सांप का पेड़ पर चढ़ना मुश्किल होने लगा। इधर टीटू ने एक-एक कर सभी बच्चों को चिंकी के घोंसले में पहुंचा दिया। चिंकी के साथ उसके बच्चे भी मदद कर रहे थे। हालांकि अभी उनकी चोंचे नर्म और नाजुक थी।
थक हार कर सांप वापस बिल में लौट गया। किन्तु अभी खतरा टला नहीं था। कलुवा कौवे ने जब एक ही घोंसले में इतने सारे बच्चे देखे तो उसने आक्रमण कर दिया। टीटू और चिंकी ने कौवे से जमकर मुकाबला किया और उसे मार भगाया।
टीटू और चिंकी के बच्चों ने एकता की ताकत को देख लिया था और साथ ही में पड़ौसी के महत्त्व को भी समझ लिया था। अब उन्हें मां के समझाने की जरूरत नहीं थी। उनकी लड़ाई खत्म हो चुकी थी। वे सब पहले जैसे मिलजुल कर रहने लगे।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

नटखट तितली

नटखट तितली की मां बीमार थी। वह फूलों का मकरंद लाने में असमर्थ थी। मां की यह स्थिति देख नटखट तितली बोली- ‘‘मां आप आराम करो। आज मैं फूलों का मकरंद ले आऊंगी।’’
‘‘जरूर जाओ बेटी, पर सुन्दर-ताजे, खुशबू वाले फूलों का मकरंद ही चुनना, साथ ही जरा तितली पकड़ने वाले बच्चों से सावधान भी रहना।’’ मां की बात पूरी सुने बिना ही नन्हीं नटखट तितली अपने रंग-बिरंगे पंख फैला कर उड़ चली। बगीचे में रंग-बिरंगे फूल खिले थे। यह देख तितली खुशी से झूम उठी। ‘‘आ हा! कितने सुन्दर फूल! कमाल की खुशबू है इनमें!’’ वह सफेद फूलों की ओर बढ़ी और उन पर मंडराते हुए गाने लगी-
‘‘मैं अलबेली,
तितली मतवाली,
फूलों का मकरंद
चुनने को आई।’’
‘‘तुम्हारा क्या नाम है महकदार फूलों?’’
‘‘हम चमेली के फूल हैं।’’
अलबेली तितली के स्वागत में चमेली के फूलों ने अपनी पंखुड़ियां फैला दीं। वह चमेली के फूलों का मकरंद चखने ही वाली थी कि उसकी नजर पीले-पीले हवा में झूमते हुए फूलों पर पड़ी। वह चमेली के फूलों को छोड़ उनकी ओर उड़ चली।
‘‘कहां चली ओ अलबेली मतवाली?’’ फूलों ने पुकारा।
‘‘कल फिर आऊंगी, अलविदा चमेली।’’ यह कह कर नटखट तितली अब पीले फूलों पर मंडराते हुए गीत गुनगुनाने लगी। फिर धीरे से उनके कान में बोली-
‘‘तुम बहुत सुन्दर हो, क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘हम गेंदे के फूल हैं।’’
‘‘मैं तुम्हारा मकरंद लेने आयी हूं।’’
तितली के स्वागत में फूलों ने अपनी पंखुड़ियां फैला दीं। ‘‘लो हमारा मीठा-मीठा मकरंद ले जाओ अलबेली।’’ नटखट तितली गेंदे के फूलों पर बैठने वाली ही थी कि उसकी नजर चम्पई रुग के फूलों पर पड़ी। वह अपना प्रलोभन रोक नहीं सकी और उनकी तरफ उड़ चली।
‘‘कहां चली ओ अलबेली मतवाली, हमारा मकरंद लेती जाओ!’’
‘‘मैं कल फिर आऊंगी।’’ यह कह कर तितली चम्पई फूलों की ओर बढ़ गई। उन्हें भी वह वहीं गीत सुनाने लगी। फिर कुछ रूक कर बोली- ‘‘आ हा! क्या तेज महक है तुम्हारी, तुम कौनसा फूल हो?’’
‘‘मैं चम्पा का फूल हूं।’’
‘‘मैं तुम्हारा मकरंद लेने आई हूं।’’
‘‘तुम्हारा स्वागत है, जितना चाहे मीठा-मीठा मकरंद ले लो। तभी उसकी नजर गुलाबी फूलों पर पड़ी। दरअसल बाग के खूबसूरत सुगंधित फूलों के बीच वह भ्रमित-सी हो गई थी।
‘‘कल फिर आऊंगी अलविदा!’’ यह वायदा करती तितली गुलाबी फूलों पर मंडराने लगी।
‘‘भीनी भीनी महक वाले सुन्दर फूल! तुम्हारा क्या नाम है?’’
‘‘हम गुलाब हैं, यहां के राजा!’’
‘‘मैं तुम्हारा मकरंद ले जा सकती हूं।’’
तितली के रंग-बिरंगे पंखों से खुश होकर गुलाब ने हंसकर ‘हां’ कर दी।
‘‘तुम बहुत सुन्दर हो मतवाली!’’ गुलाब से अपनी प्रशंसा सुनकर नटखट तितली झूम उठी। गुलाब की खुशबू से मस्त होकर फूलों पर थिरकने लगी। हवा में लहरा-लहरा कर चक्कर लगाने लगी कि किसी गुलाब का मकरंद ले जाऊं। इतने में एक नटखट गुलाब ने अपना कांटा तितली के पंखों में चुभो दिया।
‘‘उई मां!’’ नटखट तितली चिल्ला उठी। उसकी आवाज सुनकर बगीचे में खेल रहे बच्चे आ पहुंचे। जैसे ही तितली ने उन्हें देखा वह सिर पर पांव रख कर भागी। वह आगे-आगे और बच्चे पीछे-पीछे दौड़ रहे थे।
बच्चों से जान बचा कर वह हांफती हुई घर पहुंची। ‘‘ले आई मकरंद अलबेली!’’ मां बोली।
‘‘नहीं मां, वहां बगीचे में एक-से-एक सुन्दर फूल मुझे बुलाने लगे। सभी अपना मकरंद मुझे देना चाहते थे। फूल कभी अपने रंगों से लुभाते तो कभी अपनी खुशबू से मोहित करते।’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’ मां ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘मां मैं बारी-बारी से सभी फूलों पर मंडरा कर उनका आनंद ले रही थी। अंत में मुझे फूलों का राजा गुलाब पसंद आया। सबसे सुन्दर गुलाब मैं चुन ही रही थी कि एक गुलाब ने अपना कांटा मेरे पंखों में चुभो दिया।’’
दर्द से कहराती नटखट तितली अपने पंख खोलने और समेटने लगी।
‘‘ओह मेरी बच्ची!’’
‘‘मेरी आवाज सुन शरारती बच्चों का झुंड पकड़ने आ पहुंचा। उनसे बचकर भाग आई। मां मैं तुम्हारे लिए फूलों का मकरंद नहीं ला सकी।’’ आंखों में आंसू भर कर नन्हीं तितली बोली।
‘‘कोई बात नहीं अलबेली, परन्तु मेरी बात ध्यान से सुनो। जीवन में हमें बहुत-सी वस्तुएं आकर्षित करती मिलेंगी किन्तु अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए मन को स्थिर करना चाहिए। उसे इधर-उधर भटकाने नहीं देना चाहिए। न ही किसी प्रलोभन में आना चाहिए। तभी हम अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकते है। जाओ कल फिर कोशिश करना।’’ मां उसे पुचकारते हुए बोली।


गुरुवार, 5 नवंबर 2009

दीप झिलमिला उठे

स्कूल से घर पहुंचते ही आलोक की नजर अलमारी पर रखे लड्डू की तरफ गई। प्रसन्नता से आगे बढ़ते हुए आलोक ने मां से पूछा- ‘‘मम्मी यह लड्डू कहां से आया ?’’
‘‘ बेटा ! यह कमला की सगाई का लड्डू है। ’’
‘‘ कौनसी कमला की सगाई..........? ‘‘लड्डू को मुंह की तरफ ले जाते हुए आलोक ने फिर प्रश्न किया।
‘‘अपने राधाबाई की बेटी कमला की’’
लड्डू को लेकर मुंह की तरफ बढ़ा आलोक का हाथ एकाएक वही रूक गया। उसने अनमने मन से लड्डू को फिर से प्लेट में रख दिया। मां की तरफ बढते हुए बोला, ‘‘क्या कह रही हो मम्मी? कमला की सगाई कर दी। अरे उसने तो अभी मेरे साथ छठी कक्षा में दाखिला लिया है।‘‘ आश्चर्य से आलोक बोला।
‘‘हां बेटा राधाबाई बता रही थी कि अगले महीने कमला का विवाह कर रही है।‘‘ मां ने आगे बताया।
‘‘नही मम्मी, यह ठीक नही। यह कोई उम्र है उसके ब्याह रचाने की। फिर कमला की पढ़ाई का क्या होगा? उसकी पढ़ाई बीच में छूट जायेगी। अभी उसे आगे पढ़ना चाहिए।’’
मां हंसते हुए बोली- ‘‘तुझे इससे क्या? इन लोगों मे कोई लड़कियों को पढ़ाते है क्या?’’
‘‘नही मम्मी, आपको कमला का विवाह रोकना ही होगा। आपको राधाबाई से इस बारे में बात करनी चाहिए। उन्हें समझाना चाहिए। आज हमारे स्कूल में ‘‘बालिका’’ नाम से एक डोक्यूमेन्ट्री फिल्म दिखाई गई जिसमें लडकियों के साथ होने वाले भेदभाव व अत्याचारों को दिखाया गया। इसी कारण हमारा समाज पिछड़ा हुआ है। आपको मालूम है मम्मी लड़कियों के साथ भेदभाव रखने में सबसे ज्यादा दोषी स्वयं लड़की के माता-पिता होते हैं। वे ही लड़की की पढ़ाई पर ध्यान नही देकर उसे घर के काम काज में लगा देते है। इस पर भी वे उसके खाने-पीने पर भेदभाव करते है। बाल विवाह करके तो वे उसें अज्ञान के अंधेरे में ही धकेल देते है।’’
‘‘अरे आज तू बहुत बड़ी-बड़ी बाते कर रहा है।’’ अपने नन्हें बेटे के मुंह से ऐसी बाते सुनकर हंसती हुई आलोक की मां उठ खड़ी हुई और अपने कार्यों में व्यस्त हो गई।
आलोक ने महसूस किया कि मम्मी ने उसकी बातों को कोई महत्व नहीं दिया। अब उसे ही कुछ करना होगा। मन में ठानकर आलोक अपनी पड़ौसिन सहपाठी शिखा के पास गया। उसे सारी बात बताई। आलोक की बात सुन शिखा पूरे जोश के साथ उसे सहयोग देने को तैयार हो गई। अब दौनो सहपाठी राधाबाई के घर की और चल पडे़।
राधा बाई के घर के बाहर दालान में एक खटिया पर बैठे दो विशालकाय मनुष्य एक दूसरे को भद्दी गालिया देते हंस रहे थे। शराब की दुर्गन्ध वातावरण में फैली हुई थी। आगे बढकर आलोक ने एक व्यक्ति से राधाबाई के बारे में जब पूछा तो उसने राधाबाई को एक भद्दी सी गाली देते हुए आवाज दी।
अन्दर कमला रेशमी गोटे के वस्त्रों मे सजी धजी गुडिया सी बनी बैठी हुई थी। उसने हल्का सा घूंघट भी डाल रखा था। उसके हाथों मे मेंहदी रची हुई थी। छोटा सा कोठरीनुमा कमरा पुरूषों व बच्चों से खचाखच भरा हुआ था।
यह दृश्य देख कर अलोक एक पल के लिए ठिठक गया। दूसरे ही क्षण वह साहस बटोर कर राधाबाई की ओर उन्मुख होते हुए बोला- ‘‘तुम कमला का बाल विवाह करके ठीक नही कर रही हो राधाबाई।’’
आलोक की बात सुन वहां बैठे सभी स्त्री पुरूषों के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। आलोक ने अपनी बात जारी रखी- ‘‘आपको कमला को आगे पढ़ाना चाहिए।’’
‘‘तुम क्या कहते हो बबुआ इतने सब लोगों के बीच राधाबाई सहमी सी कहने लगी- ’’तुम घर जाओं बबुआ मैं तुमसे वहीं बात करूंगी।’’
‘‘घर क्यों? यही सबके बीच में सबके सामने कहूंगा कि आप कमला के साथ अन्याय कर रही है? उसकें भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। यह हम नहीं होने देगें।’’
‘‘ब्याह करना कोई अन्याय है?’’ वहां बैठी एक स्त्री ने हंसते हुए कहा।
‘‘किन्तु विवाह सही उम्र में होना चाहिये। मैं अभी छोटी हूं और पढ़ना चाहती हूं’’ कमला घूंघट हटाते हुए बोली।
‘‘हां बिल्कुल पढ़ाई से वंचित कर बाल विवाह करना अन्याय है।’’
‘‘जाओं बबुआ जाओ’’ राधाबाई आलोक से विनती के स्वर में बोली। इस खुशी के मौके पर हम गरीब के रंग में भंग मत डालो। हम गरीब सही पर सब लोगों के बीच हमारा तमाशा मत बनाओं। मैं तुम्हारे हाथ जोडती हूं बबुआ।‘‘ गिड़गिड़ाती हुई राधा बाई ने कमला को अंदर धकेल दिया। फिर साड़ी के पल्ले को मुंह में ठूंसकर रो पड़ी।
इस पर घर में शोर-शराबा सा मच गया। हंगामा सुनकर बाहर बैठे शराबी भी भीतर आ गये। जो शायद कमला के पिता व होने वाले श्वसुर थे।
राधा बाई का करूण व दूसरों का आक्रामक रूख देखकर उन्होंने वहां से निकल जाना ही उचित समझा।
रास्ते मंे आलोक व शिखा अपने सभी साथियों से मिले व उन सभी ने मिलकर एक योजना बनाई। योजना अनुसार दूसरे दिन स्कूल में सभी बच्चे प्रधानाचार्य जी के कक्ष मे एक साथ पहुंचे। सभी छात्र-छात्राओं को अपने कक्ष में एक साथ पाकर प्रधानाचार्य जी कुछ चौंके कि क्या बात हुई? बच्चों ने उन्हें एक पार्थना पत्र दिया जिसमंे कमला के बाल विवाह को रूकवाने का आग्रह किया हुआ था।
‘‘यह तुम लोगों ने बहुत अच्छा किया जो समय रहते मुझे सूचना दी। मैं वायदा करता हूं कि कमला का बाल विवाह रूकेगा ही नहीं बल्कि उसकी पढ़ाई भी पुन: जारी रहेगी। सभी बच्चों को प्रसन्नता से देखते हुए प्रधानाचार्य जी यह सब बोल रहे थे।
प्रधानाचार्य जी ने कमला के माता पिता को स्कूल में बुलवाया। कमला के माता पिता अपने दोनों हाथ जोड़े हुए प्रधानाचार्य जी के सामने खडे़ हुए थे।
‘‘आईये, बैठिए।’’ विनम्रता से उनका स्वागत करते प्रधानाचार्य जी बोले,’’ क्या बात है आज कल कमला स्कूल नहीं आ रही।’’
कमला के माता-पिता चुप खडे़ थे।
उन्हें चुप देख प्रधानाचार्य जी आगे बोले- मैंने सुना है तुमने कमला की सगाई कर दी और अगले माह उसका ब्याह करने वाले हों।’’
हां मास्टर सा अब वह स्कूल नही आयेगी.......’’।
‘‘यह तुम क्या कह रही हो? मां होकर बेटी के उन्नति के मार्ग को रोक रही हो। अभी तुमने ‘‘हमराही’’ धारावाहिक मे ‘‘अंगूरी’’ की मौत नही देखी?’’
विनम्रता तोड़ते हुए जब गुस्से से गुरूजी कड़वा सच बोले तो अंगूरी के उदाहरण मात्र से कमला के अनिष्ट की आशंका से राधाबाई का रोया-रोया कांप उठा। सारा दोष कमला के पिता पर मढ़ते हुए बोल उठी,’’ इन्होंने ही लिए कमला के ससुर से दो हजार रूपये। दो हजार रूपये के पीछे मेरी बच्ची... आप ही कुछ समझाओं मास्टर सा. ये रूपये भी शराब में उड़ा देगा यह... राधा बाई बोलती-बोलती फफक कर रो उठी।
‘‘जानते हो बाल विवाह कानूनी जुर्म है। मैं पुलिस में रिपोर्ट लिखवाकर तुम्हें जेल भिजवा दूंगा।’’
पुलिस व जेल का नाम सुनते ही कमला के शराबी पिता को थोड़ा होश आया। सारा दोष अपनी पत्नी के सिर मढ़ते हुए बोला- ’’माफ करें मास्टर सा. वो तो कमला की मां को नाच गाने का बहुत शौक है। इसी मारे ब्याह करवा रहे है कि घर में कुछ धूमधाम होगी।
गुरूजी हंसते हुए बोले, ‘‘यदि नाच गाने का इतना ही शौक है तो शनिवार को स्कूल आ जाया करों। बाल सभा में खूब नाच गाने की
धूम करवा दूंगा। तुम्हें शौक है तो तुम भी नाच गा लेना। पर नाच गाने की ओट में कमला का बाल विवाह न होने दूंगा।’’ प्रधानाचार्य जी कमला के माता-पिता को घुड़काते कह रहे थे।
आज दीपावली का दिन था। सभी छात्र-छात्राओं ने प्रधानाचार्य से इजाजत लेकर इस विद्या मन्दिर को खूब सजाया। हमेशा दीपावली पर बंद रहने वाला स्कूल आज नयी पीढ़ी से गमक रहा था। आलोक, शिखा व अन्य बच्चों के साथ कमला भी थिरक थिरक कर काम कर रही थी। सभी का एक उद्देश्य था विद्या मन्दिर हमेशा सजा रहे। इसकी रोशनी सर्वत्र फैले। अज्ञान का अंधकार दूर हो।
रात को स्कूल के हर कंगूरे पर नन्हे नन्हे दीप झिलमिला रहे थे। मानो वे अपने अस्तित्व का बोध करा रहे हो-
हम दीप चाहे नन्हें नन्हें हो पर अपनी ज्योति से अमावस्या के अंधेरे को भगा सकते है।


मंगलवार, 6 अक्तूबर 2009

अबोला दर्द

बेहद गर्मी थी, उफ! ये मई का महीना। हाल यह कि पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिल रहा। भरी दुपहरी में जब लोग पंखे कूलर में सो रहे थे तब अकेला बबलू कंचे खेलने में मशगूल था। उसके ललाट से पसीना रिसता हुआ गालों तक आ रहा था।
एक दो तीन चार....... बबलू ने कंचे गिनना शुरू किया। पूरे 15 कंचे उसकी मुट्ठी में बंद थे। हरे, नीले, लाल, पीले, नारंगी रंग के कंचे में एक था नारंगी हरी सफेद धारियों वाला बबलू का सबसे प्यारा कंचा। उसे अलग निकाल बबलू ने उसे चुम्मा दिया- ‘‘आ हा! मेरे प्यारे कंचे। सबसे पकौड़ा।’’ कुल दस कंचे गिनकर उसने निकर की जेब के हवाले किये। बाकि के गोल मटोल कंचों को आंगन में बनी ‘गुच्च’ की ओर उछाल दिया। सभी कंचे बिखर गये और एक कंचा गुच्च में जा गिरा। बबलू ने अपना प्यारा तिरंगा कंचा हाथ में रखे हुए था। उसने निशाना साधा और नीचे गिरे कंचे पर कंचा दे मारा।
गर्मी की तपन और पसीने की चुहन से बेखबर बबलू निशाने पर निशाने साध रहा था। इतने में छत की ओर जाने वाली सीढ़ियों पर फड़फड़ाहट की आवाज आयी। खेल छोड़ बबलू का ध्यान जीने की ओर गया। देखा, खून से लथपथ एक घायल कबूतर वहां गिरा पड़ा है। बहता हुआ खून देख उसकी चीख निकल गई-
‘‘दीदी · दीदी · · जल्दी आओ · ’’
बबलू की चीख सुन उसकी बहन बाहर की ओर लपकी - ‘‘क्या हुआ बबलू? तुम ठीक तो हो भैया।’’

‘‘दीदी, दीदी देखो, यहां एक घायल कबूतर आ गिरा है।’’ बबलू ने कबूतर की ओर इशारा करते हुए कहा।
‘‘देखूं तो कहां? ओह! इस बिचारे को तो किसी ने जख्मी कर दिया है।...... बेचारे के बहुत खून बह रहा है।’’ कहते हुए शायदा ने कबूतर को सावधानी पूर्वक उठा लिया।
‘‘आओ, अन्दर कूलर की हवा में इसे ले चलते है। वहीं इसकी पट्टी बांधते है।’’
‘‘दीदी पूजाघर से रूई ले आऊं?’’
‘‘हां, साथ में डिटोल भी’’
बबलू दौड़कर रूई का फाहा, डिटोल और पट्टी के लिए पुराना साड़ी का फॉल उठा लाया और घाव से रिसता खून फाहे से पौछने लगा। दोनों पंखों के बीच, गर्दन के नीचे पूरा मांस बाहर निकल आया था। शायदा ने फॉल को लपेटकर कसकर पट्टी बांध दी। कबूतर बराबर फड़फड़ा रहा था।
‘‘दीदी, बेचारे के बहुत दर्द हो रहा होगा।’’ बबलू ने दर्द में डूबकर कहा।
‘‘हां, जाकर एक कटोरी में पानी ले आ, यह प्यासा भी होगा।’’ बबलू दौड़कर पानी ले आया। वे कबूतर को पानी पिलाने की कोशिश करने लगे पर उसने चोंच गीलीकर बाहर निकाल ली। बंधी हुई पट्टी खून से गिली हो गई शायदा बोली- ‘‘ कहीं बेचारा मर न जाय। चल बबलू, इसे अस्पताल ले चलते है।’’
‘‘इसे अस्पताल?’’
‘‘हां जानवरों के अस्पताल। मैं जानती हूं यहां से थोड़ी दूर ही है।’’ शायदा चिंतित होते बोली।
‘‘वहीं, सरकारी पशु चिकित्सालय न! जिसमें टॉमी को ले जाया जाता था।’’
‘‘हां वहीं, चल जल्दी कर। कहीं बेचारे की जान ही न निकल जाए। चलो तुम मेरे पीछे इसे लेकर स्कूटी पर बैठ जाना।’’
‘‘दीदी तुम स्कूटी चलाओगी?’’
‘‘हां हां, क्यों नहीं। इतना तो मुझे चलाना आता है। इस बिचारे की जान जो खतरे में है।’’
दोनों भाई बहन स्कूटी पर सवार होकर पशु चिकित्सालय की ओर निकल पड़े। बीच में चौराहा आ गया। दोपहरी का समय था इसलिए चौराहा लगभग खाली था। शायदा को अस्पताल पहुंचने की जल्दी थी अत: उसने लालबत्ती होने के बावजूद भी सड़क क्रॉस करनी चाही। उसे ऐसा गलत करते देख ट्रेफिक पुलिस ने सीटी बजाई और उसे बीच चौराहे में ही रोक लिया।
‘‘ऐं लड़की! क्या बत्ती दिखाई नहीं पड़ती?’’ पुलिस वाला सख्ती से बोला।
‘‘दिख तो रही है पर इमरजेंसी है इसलिए....’’
‘‘कैसी इमरजेंसी? तुमने हेलमेट तक नहीं पहना। ट्रेफिक कानून को तोड़ती हो। अभी चालान बनाता हूं।’’
‘‘पुलिसजी हमें माफ कर दो। गलती हो गई। इमरजेंसी नहीं होती तो मैं कदापि कानून नहीं तोड़ती। बिचारी एक नन्हीं सी जान पर बन आयी है....’’
‘‘.....देर हो गई तो यह मर जायेगा।’’ दीदी का अधूरा वाक्य पूरा करते हुए बबलू ने खून से लथपथ कबूतर को आगे हाथ बढ़ाकर पुलिस वाले को बताया। ट्रेफिक पुलिस वाले की नजर कबूतर पर गिरी तो वह चौंका-
‘‘यह क्या है?’’
‘‘घायल कबूतर। पुलिस भैया, यह घायल हुआ हमारे घर के आगंन में आ गिरा।’’
‘‘ओह! बच्चों, चलो जल्दी करो। इसे जल्दी से अस्पताल पहुंचाओ। पर ध्यान रखना आईंदा सड़क कानून का उल्लघंन करोगे तो जुर्माना तो करूंगा ही, लॉकअप में भी बंद कर दूंगा।’’
‘‘ठीक है भैया अब दुबारा गलती नहीं होगी। हमें जाने दो...।’’
‘‘जाओ जल्दी पहुंचों। कहीं बेचारे की जान ही न निकल जाय।’’
जब वे दोनों अस्पताल पहुंचे तो पता चला अस्पताल बंद हो चुका है। डॉक्टर घर जा चुका है।
‘‘ओह! क्या यहां आपत्तकालीन सेवाएं नहीं उपलब्ध है?’’
‘‘हैं क्यूं नहीं’’ कहते हुए पीछे के दरवाजे से एक व्यक्ति ने आते हुए आगे पूछा, ‘‘कहो, क्या बात है। मैं यहां का कम्पाऊंडर हूं।
‘‘ओह! आप मिल गये अच्छा हुआ। इस कबूतर को देखिए।’’ बबलू ने दोनों हाथों के बीच लगभग बेजान हुए कबूतर को आगे बढ़ाते हुए कहा। जख्मी पक्षी देख कम्पाऊंडर ने उसके हाथ से कबूतर ले लिया और देखने लगा। मामले की गम्भीरता को देखते हुए उसने तत्काल एक कक्ष खोल दिया और कबूतर की जांच करने लगा। ‘‘खून बहुत बह गया है बच्चों। कुछ कहा नहीं जा सकता। डॉक्टर को बुलाना होगा शायद तत्काल ऑपरेशन करना पड़े। यह देखो इसके घाव में पीली धातु का यह टुकड़ा गड़ा हुआ है।’’ दोनों भाई-बहन झुककर स्ट्रेचर पर लेटे कबूतर को देखने लगे।
‘‘अब क्या होगा?’’ बबलू ने अधीरता से पूछा।
‘‘डॉक्टर को बुलाना होगा। तुम फिक्र मत करो बच्चों मैं अभी डॉक्टर को फोन करके बुलाता हूं।’’ कम्पाऊंडर ने जेब से मोबाईल निकाल कर फोन लगाया। डॉक्टर से बात हुई।
‘‘अभी डॉक्टर को आने में वक्त लगेगा। जितने मैं इसका घाव साफ करके प्राथमिक चिकित्सा कर देता हूं।’’ कम्पाऊंडर के सधे हाथ कबूतर के घाव की सफाई करने लगे। लगभग 10 मिनिट बाद डॉक्टर आ गये। उन्होंने कबूतर का तत्काल ऑपरेशन किया और पीले धातु के टुकड़े को निकालकर बिखरे मांस को ठीक कर टांके लगा दिये। उस पीले
धातु के टुकड़े को उठाकर डॉक्टर ने परखा- ‘‘यह तो किसी गोली का खोल लग रहा है। गोली तो शायद मांस को छिलती हुई आगे निकल गई किन्तु उसका खोल मांस फटने से भीतर ही धंसकर अटक गया लगता है।’’
‘‘डॉक्टर सा. इस बेजुबान को किसने गोली मारी होगी?’’
‘‘देखो, ध्यान से देखो। इस खोल पर बहुत बारीक अक्षर में कुछ अंकित र्र्है।’’
‘‘जरा पढ़कर देखती हूं कहते हुए शायदा ने वह टुकड़ा उठा लिया। ‘‘यह तो पड़ौसी देश का नाम लिखा हुआ है। जरूर दुश्मनों ने इसपर अपना निशाना साधा होगा।’’
‘‘डॉक्टर सा. क्या यह ठीक हो जायेगा? इसकी जान बच जायेगी?’’
‘‘अब यह खतरे से बाहर है। इसे यहां तीन दिन भर्ती रखना पड़ेगा बच्चों। फिर चाहे इसे तुम ले जा सकते हो। इस पर दया दिखाकर यहां ले आये यह बहुत अच्छा किया तुमने। तुम बहुत अच्छे बच्चे हो।’’ कहते हुए डॉक्टर सा. ने उनकी पीठ थपथपा दी।
‘‘क्या इसे देखने हम यहां रोज आ सकते है?’’ बबलू ने पूछा तो डॉक्टर ने कहा-
‘‘हां हां, क्यों नही।’’
‘‘हम रोज इससे मिलने आया करेंगे डॉक्टर साहब।’’
‘‘हां, परन्तु जल्दबाजी में नहीं ट्रेफिक नियमों की पालना करते हुए आना।’’

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

झीलों की नगरी

‘‘मम्मी-मम्मी, भैया आ गया,’’ शोर मचाती हुई जया बाहर की ओर दौड़ी। जय ऑटो रिक्शा से अपना सामान उतार रहा था। वह अपने तीन दिन के स्काउट कैंप से लौटा था। इस बार उस का कैंप उदयपुर शहर में लगा था। जया की आवाज सुन माता-पिता, दोनों ही दरवाजे तक आ पहुंचे थे।‘‘कहो बेटा, कुशल से तो हो?’’ पिता ने पूछते हुए उसके सिर पर हाथ फेरा।जय को देखते ही मां की आंखें गीली हो गई थीं। जय भी आगे बढ़ कर उन से लिपट गया। सातवीं कक्षा में पढ़ने वाला जय पहली बार अकेला घर वालों से दूर दूसरे शहर गया था।‘‘इस बार गरमी जल्दी पड़ने लगी है। कहो, उदयपुर का मौसम कैसा था?’’ पंखा तेज करते हुए पिता ने पूछा।‘‘उदयपुर के मौसम की कुछ मत पूछिए। सचमुच वह राजस्थान का कश्मीर है। चारों ओर हरी भरी पहाड़ियां, बाग, बगीचे और पानी से लबालब भरी झीलें मन में शीतलता भर देती हैं।’’ जूते मोजे एक तरफ रखते हुए वह पिता के पास सोफे पर बैठ गया। ‘‘झीलों की नगरी उदयपुर में देखने लायक कई जगह हैं।’’मां जय के लिए दूध ले आई थीं, जिसे वह पीने लगा। थोड़ी देर बाद वह सभी को एलबम दिखाने लगा,‘‘यह देखो, यह सहेलियों की बाड़ी की छतरी है। सफेद पत्थरों की बनी हुई फुहारों वाली छतरी। जया, इस सफेद बड़ी छतरी के चारों तरफ बड़ा पानी का हौज है। हौज के चारों कोनों पर काले पत्थरों की छतरियां हैं। इन छतरियों और हौज के चारों ओर फुहारों की ऐसी सुंदर तकनीक है जिस के कारण ऐसा लगता है, जैसे सावन की झड़ी लग गई हो।’’जय आगे बोला- ‘‘हम सबसे पहले फतहसागर घूमे। इस चित्र में देखो। कहते हैं, इस झील का निर्माण एक धनी बनजारे ने करवाया था। इसके एक ओर अरावली की पहाड़िया हैं और दूसरी ओर लंबी सर्पीली सड़क है। सचमुच, सुबह की सैर का आनंद आ गया।‘‘इसी के दूसरी ओर मोती मगरी की पहाड़ी पर महाराणा प्रताप का स्मारक बना हुआ है। यह देखो, महाराणा प्रताप की और उनके प्रिय घोड़े चेतक की प्रतिमा।’’‘‘जय, यह वही घोड़ा है, जिस ने प्रसिद्ध हल्दी घाटी के युद्ध में राणा प्रताप का साथ दिया था।’’‘‘हां पापा, मुझे मालूम है। हां, तो मैं मोती मगरी की बात कर रहा था, वहां से शहर देखना बहुत अच्छा लगा। हम ने वहां लगी दूरबीन से शहर का नजारा देखा।’’‘‘भैया, क्या तुम ने वहां झील की सैर नहीं की?’’‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं... हमने बोटिंग का भी आनंद लिया। नाव में बैठ कर हम फतहसागर झील के बीच टापू पर बने नेहरु द्वीप उद्यान गए। वहां से लौट कर हमने सुखाड़िया सर्कल के बंबइया बाजार में नाश्ता किया।‘‘इसके बाद हमने भारतीय लोक कला मंडल देखा। तरह तरह के मुखौटे और कठपुतलियों को देख हम खूब हंसे। इसके बाद हम राजमहल देखने के लिए रवाना हो गए।‘‘उदयपुर का राजमहल पिछोला झील के किनारे बना हुआ है। हाथी पोल से गुजरता हुआ सीधा रास्ता राजमहल की बड़ी पोल तक पहुंचता है। महल में देखने लायक कई जगहें थीं, पर मुझे मोर चौक मंे बने रंगीन कांच के टुकड़ों के मोर बहुत पसंद आए। राजमहल देखने में हमें 2-3 घंटे लगे।‘‘अब तक पेट में चूहे दौड़ने लगे थे। थकान के साथ-साथ भूख से सब व्याकुल हो रहे थे। हमने वहीं पास के एक होटल में खाना खाया।भर पेट खाना खाने के बाद हमें आलस घेरने लगा। हम सभी सुस्ताना चाहते थे, इसलिए हमारे ‘सर’ हमें गुलाब बाग उद्यान ले गए। जहां विशाल पेड़ों की छाया में हमने हरी दूब पर कुछ देर विश्राम किया।‘‘वहां का चिड़ियाघर देखते हुए हमारे कुछ साथियों ने गोलगप्पे खाए तो कुछ ने आईसक्रीम। किंतु मैंने जया के लिए यहां से एक खिलौना खरीदा।’’ कहते हुए उसने वह खिलौना जया को दे दिया।‘डुग...डुग...डुग...डुग...,’ खिलौना बजने लगा। जया खुश हो गई। उसने फिर बजाया। ‘डुग...डुग...डुग...डुग...,’ और बाहर दौड़ गई।‘‘बेटा, यह चित्र कहां का हैं?’’ मम्मी ने एक चित्र पर उंगली रखते हुए पूछा।‘‘मां, यह लेक पैलेसे होटल है। पहले यह जगनिवास महल था। बाद में इसे होटल बना दिया गया। महाराणा जगतसिंह ने इसेबनवाया था।‘‘यह पिछोला झील के एक टापू पर बना हुआ है। दूसरे टापू पर जगमंदिर महल बना हुआ है।’’‘‘क्या तुम वहां गए?’’‘‘नहीं मां, बस दूर से ही संतोष करना पड़ा। हम दूध तलाई पार्क जरूर गए थे। सुना है, वहां एक म्यूजिकल फाउंटेन लगा है। किंतु उसके चालू होने का समय निश्चित है और हम लौटने की जल्दी में थे।‘‘लौटते समय मैंने वहां की सजी धजी दुकानों पर बहुत कुछ देखा। छापी हुई सुंदर चादरें, बंधेज की साड़ियां, जिन्हें मैं मम्मी के लिए लेना चाहता था और पापा आप के लिए मोचड़ियां। किंतु दुख है कि मैं उन्हें ला नहीं सका, क्योंकि इतने पैसे मेरे पास नहीं था।’’ कहता हुआ जय उदास हो गया।‘‘कोई बात नहीं मेरे नन्हंे स्काउट... इतनी कम उमz में तुम एक सुंदर शहर घूम आए, क्या यह कम खुशी की बात है। मेरा वादा रहा कि अगली छुट्टियों में हम सब उदयपुर घूमने जाएंगे। तब तुम हमारे गाइड बनोगे,’’ पिताजी ने जय की पीठ थपथपाते हुए कहा।‘‘हां... हमारे नन्हें-मुन्ने गाइड, बोलो जयहिंद... जयहिंद...जयहिंद...’’ मां सलाम करते हुए कदमताल करने लगीं। यह देख सभी खिल उठे।

सोमवार, 24 अगस्त 2009

अजय के दोस्त

अजय के दोस्त
अजय के पिता को मिले इस सरकारी क्वार्टर के पास दूसरा मकान नही था। न ही अजय के कोई छोटा भाई बहन। पड़ोस के अभाव में अजय बिल्कुल अकेला महसूस करता। वह हमेशा सुस्त व उदास रहता। वह मां से कहता- ’’मां मै किसके साथ खेलूं।’’ उसका मन बहलाने के लिए मां उसके साथ थोड़ी देर खेल लेती और फिर अपने कामों में लग जाती। एक शाम अजय बहुत खुश होता हुआ घर में घुसा।मां एक खुशखबरी लाया हूं। पप्पी ने चार बच्चों को जन्म दिया है। ‘‘छोटे -छोटे, गोल - मटोल, झबरीले बालो वाले पिल्ले बहुत सुन्दरे है मां।’’ देख तू अभी उनके पास मत जाना बेटा, नही तो कुतिया तुम्हें काट लेगी।’’ वो क्यों मां? मुझे तो उस पीले, चितकबरे काले पिल्ले से ज्यादा सफेद पिल्ला पसन्द आया है। मंै उसे पालंूगा।’’‘‘नहीं - नहीं अभी तुम पिल्लों को हाथ नही लगाना, चलो हाथधोकर खाना खा लो। अजय ने फटाफट हाथ धोए और खाना खाने बैठ गया। उसका ध्यान उन पिल्लों में लगा हुआ था। सोच रहा था उनको कहां रखा जाए। ‘‘आराम से चबा-चबाकर खाओं अजय, नहीं तो पेट मे दर्द होगा।’’ मां ने अजय को टोंका।खाना खाकर अजय फिर वहां पहुंच गया जहां पप्पी कुतिया ने बच्चे दिए थे। पप्पी उसे देख गुर्राने लगी। उसकी गुस्से से भरी अंाखों को देखकर अजय डर गया। ‘‘दूर रहना अजय नहीं तो पप्पी काट खाएगी’’ पीछे से आती मां ने हिदायत दी। ‘‘वह क्यों गुर्रा रही है मां? ’’ उसे डर है कि कहीं तुम उसके बच्चों को न ले जाओं।’’ ‘‘क्या जानवर भी अपने बच्चों से इतना प्यार करते है, मां ?’’ ‘‘हां बेटा, जानवर भी समझदार होते है किन्तु ये बेचारे हमारी तरह बोल नहीं सकते।’’ मां ने मुस्कुराकर कहां। मां और अजय यू ही खड़े थोड़ी देर तक उन्हें देखते रहे फिर मां अन्दर चली गई। अजय वहीं खेलने लगा। दूसरे दिन स्कूल से लौटकर अजय सीधा वहीं पप्पी के पास पहुच गया। पप्पी सोई हुई थी और पिल्ले उस पर कूद रहे थे। अजय के आने की आहट सुन पप्पी चौंक उठी। सामने उसे पाकर वह चौकस हो इधर उधर देखने लगी।‘‘ आज पप्पी कल की तरह गुर्राई नहीं, पर देखो न मां कैसी चौकसी कर रही है अपने बच्चांे की। अजय अपनी मां से बोला जो बदामदे मे बैठी स्वेटर बुन रही थी। अजय आगे बोला-‘‘क्या मां मै अब इसके बच्चों को हाथ लगा सकता हूं।’’ नहीं मां ने ‘ना’ में गर्दन हिलाई। आठ-दस दिन बाद जब पिल्ले कुछ बडे हो जाएंगे तब तुम इनसे खेलना। जानवर भी इंसानों के बहुत अच्छे दोस्त होते है।’’ ‘‘सच! मां ये बड़े होकर मेरे साथ खेलेंगे?’’ खुशी से अजय ने ताली बजाई। ‘‘हां वह खुद तुम्हारे पास दौड़कर आएंगे।’’ पप्पी कुतिया अब भी अजय के आने पर चौकन्नी हो जाती, पर कहती कुछ नहीं। वह अपने पिल्लों का अब भी पूरा ध्यान रखती थी। जैसे ही काला नटखट पिल्ला अजय के पास आना चाहता। पप्पी उसे मुंह मंे दबाकर खींच लेती। कभी पीले पिल्ले की टंाग पकडकर खंींचती और पिल्ले उछल - उछलकर भगाने की कोशिश करते मिटटी में लोट लगाते। यह सब देख अजय बहुत खुश होता। ‘‘पप्पी कुतिया अब पिल्लों से लड़ाई करने लगी है मां। क्या अब वह इन्हं प्यार नहीं करती?’’ अजय ने देखा पप्पी पिल्लांे को काटती है। उनके पीछे दौड़ती हैं। उन्हंे जमीन पर घसीटती है। ‘‘देखो मां! कैसे दांत पप्पी ने सफेद झबरीले पर गड़ा दिए अजय दर्द का अहसास कर बोला।‘‘नहीं बेटा! पप्पी इन्हंे मार नहीं रही बल्कि लड़ाई के दांव पेच सिखा रही है ताकि ये समय आने पर अपनी रक्षा करना सीख सके।’’ ‘‘ओह ! जानवर वाकई में बड़े समझदार होते है। पप्पी और पिल्लों को गुलांछिया खाते देख अजय बहुत खुश होता। अब वह पहले की तरह शाम को उदास नहीं होता था और न ही मां के साथ खेलने की जिद करता। इन दोस्तों को पाकर वह बहुत खुश था और छोटे दोस्त भी अजय से पूरी मित्रता निभाते। वे अजय के पैरों में लिपट कर प्यार जताते। उनके रेशमी बाल की छुअन से अजय को गुदगुदाहट होती सफेद झबरीला पिल्ला अजय की गोद से नीच कूद जाता। अजय उसकी पीठ थपथपाते हुए कहता-‘‘शैतान कहीं का।’’ सुबह स्कूल जाते समय रास्ते में सभी पिल्ले अजय के आगे - पीछे दौड़ लगाते चलते। अजय को अब अकेलापन बिल्कुल नहीं लगता बल्कि उसे लगता वह राजा है और ये उसकी सेना है जो किसी खतरे से उसकी रक्षा करेगी। यह सोच अजय अकड़ कर चलने लग जाता। इस तरह पिल्ले हर रोज अजय को स्कूल छोड़ने आते। अजय स्कूल गेट में घुस पिल्लों से टाटा कर लेता और पिल्ले वहीं बाहर गेट पर बनी झालियों मंे चढ़-चढ़कर पांव फंसाकर भौंकते लगते। ‘‘अभी जानवरों के लिये स्कूल नहीं खुले हैं। हां, किन्तु यह वायदा करता हूं कि जब भी ऐसा कोई स्कूल खुलेगा जिसमें कुत्तों को पढ़ाया जायेगा। तुम अवश्य पढ़ सकोगे, दोस्त। तुम्हारा दाखिला मैं करवाÅंगा।’’ अजय उनसे हाथ हिलाकर विदा ले लेता। शाम छुट~टी के बाद जब वापस घर के लिए लौटने लगता तो वहीं गेट के बाहर चारांे पिल्ले उसका इन्तजार करते मिलते। स्कूल के अन्य लडकों के सामने अजय की गर्व से छाती फूल जाती। वह कहता-‘‘आ गए मेरे सैनिक। चलों अपने राजा को ले चलों।’’ फिर वहीं अजय के आगे-पीछे पिल्लों की दौड़ शुरू हो जाती। अजय सफेद झबरीले को गोद मंे उठा लेता और प्यार करने लगता पर झबरीया अजय की गोद से नीचे कूद पड़ता और अपने भाई बहनों के साथ दौड़ में शामिल हो जाता। अजय की मां कहती- ‘‘तुम पिल्लों को गोद में न उठाया करों ये गंदे हैं तुम्हंे खुजली हो जाएगी और उसके हाथ साबुन से धुलवाती। अजय ने सोचा मां कहती है, ‘पिल्ले गंदे हैं क्यांे न मैं इन्हंे नहला दिया करूं। छु~टटी के दिन अजय ने पिल्लों को नहलाने के लिए जैसे ही उन पर पानी डाला पानी गिरने से पिल्ले हड़बड़ा उठे और बालों में से पानी झटकते हुए भागने लगे। अजय ने उसकी कसकर टांग पकड़कर खींच ली। नन्हें पिल्ले चिल्लाने लगे। यह देख अजय बोला- ‘‘मां कहती है, तुम गंदे हो। मेरे दोस्त बनना है तो तुम्हें साफ रहने के लिए नहाना होगा।’’ ‘‘बेटा क्यांे जानवरों को परेशान कर रहे हो।’’ पिल्लों की चिल्लाहट सुन मां बाहर आकर बोली। ‘‘ मां मैं इन्हें साफ रहने का सबक सिखा रहा हंूै।’’ यह सुन मां मुस्कुरा दी और उसके दोस्तो के लिए दूध रोटी देने लगी। दूध रोटी खाकर पिल्ले बढ़ने लगे। एक दिन स्कूल के एक शरारती लड़के ने सफेद झबरीले पिल्ले पर पत्थर फेंक दिया। पत्थर उसकी टांग पर लगा और खून बहने लगा। सफेद झबरीला अपनी टांग उपर उठाए जोर -जोर से कू-कू कर रोने लगा। अपने नन्हंे दोस्त की टांग से बहते खून और आंखांे के आंसुओं को देख अजय आज बहुत उदास था। ‘‘मां झबरीले को बहुत दर्द हो रहा होगा। मां उस लड़के ने इसे पत्थर क्यों मारा। अजय आंखो में आंसू भर मां से बोला।‘‘‘‘कुछ लोग ऐसे ही निर्दयी होते है बेटा, जो इन बेजुबानों पर जुल्म करते है। ये भी घरती मां की संतान है इन्हंे भी जीने का उतना ही हक है। इंसान को चाहिए कि इन्हंे मारे। न ही चोट पहंुचाएं बल्कि प्यार से रखे तो ये अच्छे मित्र साबित हो सकते है, मां ने अजय को समझाना चाहा।‘‘हां मां, तुम बिल्कुल ठीक कहती हो। इन्हंे पाकर मैं कितना खुश हूं कहता अजय मां की साडी में लिपट कर आगे बोला-‘‘अब मैं किसे भी इन्हें पत्थर मारने नहीं दूंगा।’’

नन्हा सैनिक

नन्हा सैनिक
गोलू वीर और सहासी बालक था। हर रोज बन्दूक लिए वह घर से दूर इन पहाड़ियों पर आता और दिनभर इधर-इधर निशाना साधता। वह बड़ा होकर सैनिक बनना चाहता था क्योंकि उसका पूरा देश युद्ध स्थल में बदल चुका था। बहुत कम नागरिक बचे थे। अधिकतर युद्ध मे मारे जा चुके थे।अब यहां वहां सैनिक टुकड़ियां छापामार युद्ध कर रही थी। ऐसे ही एक दिन गोलू बन्दूक लिए पहाड़ी पर पहुँचा । अभी उसने एक दो निशाने लगाये ही थे कि उसे एक ‘कराह’ सुनाई पड़ी। कान चौकन्नें कर वह आहट लेने लगा। तभी उसकी नजर नीचे ढ़लान में पडे आदमी पर पड़ी। ‘शायद वह घायल है, उसे मेरी सहायता की जरूरत है।’ सोचता हुआ गोलू ढ़लान की ओर चल पड़ा, वहां पास ही एक पानी का नाला बह रहा था। गोलू ने पास जाकर देखा- वहां घायल आदमी बेहोश था। आगे बढ़ गोलू ने उसे सीधा किया। सैनिक वर्दी पहने घायल के शरीर पर जगह जगह घाव थे जिनमें से खून रिस रहा था। उसका पूरा शरीर सर्दी से अकड़ गया था।गोलू ने जल्दी ही आसपास से कुछ घास फूस व सूखी टहनियां बटोरी और दो चकमक पत्थरों को रगड़ उनमें चिंगारी पैदा की घास ने आग पड़क ली। घायल सैनिक के घावों से निरंतर खून बह रहा था। जिसे रोकने के लिए उसके पास पटटी या कोई कपड़ा नहीं था। उसने यहां वहां नजर दौडाई, दूर तक कोई नजर नही आया। तभी उसे एक उपाय सूझा। अपना ओवर कोट उतार उसने अपनी कमीज उतार ली और उसें फाड़कर वह सैनिक के घावों पर पटिटयों की तरह बांधने लगा। आग की गर्मी पा घायल सैनिक का अकदाया बदन कुछ हरकत में आया। वह पानी पानी.....कराह उठा। गोलू दौडकर बहते नाले मे से थोड़ा कपड़ा भिगो लाया और उसके मुंह में पानी की बूंदेटपकाने लगा।पानी पाकर वह होश में आने लगा। ‘‘मै कहां हूं ...... तुम कौन हो? कराहते हुए सैनिक ने कहा- ‘‘मै गोलू हूं। मुझे तुम यहां घायल अवस्था मे बेहोश पड़े मिले।’’ मै तुम्हें घर ले जाना चाहता हूं ताकि तुम्हारे घावों पर ठीक से मरहम पट~टी की जा सकें।एक नन्हें बालक की अपने प्रति गहरी संवेदना देख उसका मन भर आया। वह टूटे स्वर में कहने लगा- किन्तु मैं उठकर चल नही सकता ... बच्चे ...‘‘क्या करूं मैं इतना छोटा हूं कि तुम्हे उठा नहीं सकता।’’ सैनिक की लम्बी कदकाठी पर नजर डालते हुए क्षण भर रूका। वह फिर कहने लगा- जंगल के मेरे सभी दोस्त जानवर इन निरंतर युद्धों में खत्म हो गये.....यहां तक की बम विस्फोटो की इस जहरीली हवाओं से एक पक्षी भी जिन्दा न बचा। मेरा प्यारा टामी भी मारा गया।’’ कहता हुआ वह अचानक आवेश मे भर उठा।‘‘बडा होकर इन दुश्मनों को देख लूंगा। सबको एक-एक कर खत्म नहीं कर दिया तो.....’’उसकी बात बीच मे ही काटते सैनिक ने पूछा’- ‘‘तुम्हारा घर किधर है? तुम किसके बेटे हो? घर में कौन कौन है?’’दूर उत्तरी ढ़लान की ओर इशारा करते हुए गोलू ने बताया कि मै वहां रहता हूं। घर में सिर्फ बूढे बाबा और मै हूं। मां-बापू शहीद हो चुके है। हरियल तोता, टामी सब...... बस! उनकी ये बंदूक अब मेरे पास है।’’ तभी कुछ पास आते पदचाप उन्हें सुनाई दिये। देखते ही देखते वे कुछ सैनिकों से घिर गये।‘‘ श्रीमान~ आप ही को हम ढंूढ रहे है, आप कुशल तो है’’ सेल्यूट करते हुए उन सैनिको में से एक ने घायल को संबोधित करते हुए कहा।‘‘हां ! इस नन्हें सैनिक की सेवा से’’ बालक की और इशारा करते हुए घायल सैनिक ने जवाब दिया। दूसरे सैनिक उसे उठाने का प्रयास करते इससे पूर्व ही वह फिर बोल उठा- ‘‘ठहरों ! मुझे इस बालक से कुछ जरूरी बात करनी है।’’ आज्ञा का पालन करते हुए सभी सैनिक एक कदम पीछे हट गये।‘‘ बेटे एक बात बताओं, अगर तुम्हें युद्ध करने वाला दुश्मन का नेता मिल जाए तो तुम क्या करोंगे?’’‘‘मैं उसे मार डालूंगा।’’ तत्क्षण ही वह बंदूक थामे चिल्ला उठा। घायल सैनिक का मान-सम्मान उससे छिपा नहीं था। वह बहुत कुछ मन ही मन समझ चुका था। फिर भी उसने बड़ी निडरता से उत्तर दिया।एक क्षण घायल सैनिक ताकता रहा फिर बोला- ‘‘लो मुझे मार डालो। तुम्हारे दुश्मनों का सेना नायक तुम्हारे सामने खड़ा है।’’बालक सहित दूसरे सैनिक भी अंचभित थे। गोलू की तनी गर्दन कुल ढ़ीली हुई।‘‘ आपको देखभाल की जरूरत है। आप पर मैं बंदूक नही चला सकता। कभी युद्ध में मिलिए। कह कर जाने के लिए मुड़ गया।उसके इस चुनौती भरे उत्तर पर सैनिक उसे रोकने का प्रयास करने लगे। तभी घायल सेना नायक ने गोलू को पुकारा- ‘‘ठहरों बालक, यह तो बताते जाओं कि तुमने मानव सेवा का पाठ कहां से पढा?‘‘मेरे बाबा कहते है कि मानव सेवा सर्वोपरि है। और वह चल पड़ा।‘‘ मुझे तुम पर गर्व है नन्हे सैनिक। तुम्हारे देश को हमेशा-हमेशा के लिए युद्ध से मुक्त कराने का वायदा करता हंू।सेना नायक की बात सुन प्रसन्न हो उस नन्हे सैनिक ने अपनी टोप उतार सेना नायक को सिर झुझाकर आपनी कतज्ञता प्रकट की। जब तक सेना नायक आंखांे से ओझल न हो गया वे एक दूसरे को देर तक हाथ हिलाते हुए अलविदा कहते रहें।