बधाई उन बच्चों को जिनकी मुर्गी ने पहला सुनहरा अण्डा दिया

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बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

ईश्वर

कूदकू चूहे को आज से पहले कोई जानता तक नहीं था। जानता तो क्या, न किसी ने नाम सुना था। ना ही उसे देखा था कभी। कौन है और कहां से आया किसे मालूम नहीं। किसने रखा होगा उसका यह नाम कूदकू?  
लम्बी लम्बी कूद लगाने के कारण ही उसका नाम कूदकू रख दिया होगा। तभी तो कूदता फांदता वह इस देवालय की इमारत में घुस आया। 
पुजारी देवप्रतिमा की पूजा करता। सुबह से लोगों का ईश्वर के दर्शन करने के लिए आना जाना शुरू हो जाता। लोग अपने साथ चढ़ावे के लिए प्रसाद लेकर आते। मिठाई, फल व सूखे मेवे का प्रसाद चढ़ा जाते। कुछ भोग का हिस्सा पुजारी रख लेता बाकी लोगों में बांट देता। फिर भी थोड़ा बहुत यहां वहां बिखरा शेष रह जाता। कूदकू चूहे के तो मजे हो गये। क्योंकि दोपहर देवालय बंद हो जाता। इसके बाद  शाम को खुलता जो रात्रि को बंद हो जाता। आराम से भोग लगे पकवानो के आन्ंद लेता। बंद देवालय में निर्भय होकर इधर उधर कूदता फांदता रहता। थोडे ही दिनों में मरियलसा दिखने वाला कूदकू मोटा तगड़ा पहलवान सा दिखने लगा।
आराम से खाना और बेधड़क घूमने के साथ साथ कूदकू की अक्ल भी मोटी हो गई। मोटी क्या यूं समझो भोंथरी हो गई थी। तभी तो अब वह देवालय बंद होने का इंतजार भी नहीं करता और मजे से ईश्वर को चढ़ाये गये प्रसाद में मुंह मारता। कभी देवप्रतिमा पर चढ़ जाता तो कभी पुजारी पर। अपने कुतरने की आदत से मजबूर कूदकू कभी ईश्वर के वस्त्र कुतर लेता तो कभी गले की फूलमाला। कभी पुजारी के पांवो को गुदगुदाते हुए पेट से होता सिरपर चढ़ जाता। बेचारे पुजारी हो हो करके कूदने लगते। लोगो में खूब तमाशा हो जाता। कभी पूजा की थाली उलट जाती तो कभी दिया बाती औंधे मुंह गिरे मिलते। इतना भी बर्दाशस्त हो रहा था मगर अब तो कूदकू ने तहजीब की सारी हदे ही लांघ ली। देवप्रतिमा क्या, देवालय क्या कोई जगह ऐसी नहीं बची जहां कूदकू की मींगणियां और उसकी बास न हो।
पुजारी के नाम में दम हो ही गया था। सबको प्रेम, बल और शरण देने वाले ईश्वर भी अब कूदकू के इस आचरण से नाराज हो गये। उन्होंने पुजारी को कूदकू चूहे को देवालय से बाहर निकाल दूर फेंक देने का आदेश दिया।  
पुजारी एक चूहेदानी ले आया। कूदकू को बड़े दिनों बाद आचार और रोटी की 
सौंधी खशबू आयी। इतने दिन मीठा खाते खाते वह भी उकता चुका था। बेफिक्री से खुद के लिए बिछे जाल से अनजान कूदकू चूहा आचार रोटी के लालच में पिंजरे में घुस पड़ा।
बस वह पकड़ा गया अब वह पिंजरे की कैद में था।
कैदी कूदकू को पुजारी दूर जंगल में नदी किनारे छोड़ आया। जहां खाने को कुछ नहीं और चारों तरफ से जान को खतरा ही खतरा था। वह दिन कूदकू का बहुत बुरा बीता। पूरे दिन खाने को नहीं मिला, जान के लाले पड़ गये सो अलग। 
‘अरे कूदके ये जान कैसी आफत में आ फंसी। ये क्या मुश्किल हो गई?’ इधर उधर जान बचाने के लिए भागता फिर रहा कूदकू यही सोच रहा था। रात का अंधेरा तो उसके लिए और खतरनाक हो गया। जिसे बिल समझकर पनाह ले क्या पता वहीं भीतर बैठा हो काला नाग। उसे निगलने के लिए। न जाने कब और कौनसा पल उसकी मौत का बन जाए। एक नाग ही क्या कहीं तगड़ा अजगर तो कहीं बिलाव दिखाई दे रहे है। उसकी तो अब खैर नहीं। कई छोटे बड़े जंगल के जीव-जन्तु उसे देखते ही शिकार के लिए तैयार बैठे है। 
डर और भूख से कूदकू थरथराने लगा। इस कठीन घड़ी में उसे देवालय में बैठे ईश्वर की याद आयी। इसके साथ ही उसे अपनी गलतियों और लापरवाहियों का ख्याल आया। 
‘ना वो पुजारी को तंग करता.....ना वो देवालय में अशोभनीय असभ्य व्यवहार करता तो आज उसकी ये दुर्गति नहीं होती। आसानी से मिलने वाले सुख की उसने कद्र ही नहीं की। अब तो जान पर बन आयी है। न जाने कौन सा पल उसे मौत की नींद सुला देगा। हे! ईश्वर मुझे क्षमा करना। मुझसे भूल हुई।’ उसने मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना की। ‘मुझे वापस अपने पास बुला लो। मैं अब कभी भी अपनी सीमाओं का उल्लघंन नहीं करूंगा। कोई भी खराब आचरण नहीं करूंगा।’’ 
बुदबुदाने के साथ टप! टप! आंसू की बूंदे उसकी आंखों से टपकने लगी।
एक नन्हें चूहें की ये दशा ईश्वर से भी नहीं देखी गई। सोचा, ‘नादान बच्चा है। एक बार क्षमा कर दें। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया है और साथ ही पश्चाताप भी कर रहा है।’ ईश्वर ने नींद में सोते हुए पुजारी को सपने में आदेश दिया- जाओ कूदकू चूहे को ले आओ। उसके बिना हमें भी तो सूना सूना लग रहा है। जब तुम सब चले जाते हो तो वही तो एक साथी होता है मेरा।
पुजारी सुबह उठकर अपना कपड़ों का थैला उठाए नदी पर नहाने चला गया। 
इधर कूदकू भी नदी तक पहुंच चुका था। जैसे उसे पुजारी के आने की खुशबू आ गई हो। मौका देखकर वह उसके कपड़े के थैले में घुस गया। इस तरह वह फिर देवालय में पहुंच गया। ईश्वर कूदकू को देखकर मुरूकुराये - ‘आ गये तुम!’
कूदकू ने विनम्र भाव से कहा - ‘‘मैं समझ गया ईश्वर! सुपात्र को तुम देते हो और कुपात्र से सब दीन लेते हो। पर हो दयालु बड़े। गलती मान लेने पर माफ कर देते हो। यही तो वो कारण है जो तुम्हें प्रतिमा से ईश्वर बनाता है। 

बुधवार, 17 जुलाई 2013

बन गये सब घनचक्कर

बन गये सब घनचक्कर
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इकलू चूजा खुश खुश लौटा है नानी के घर से। अपने घर वापस आकर और खुश था। एक एक कर अपने प्यारे खिलौनो से खेलने में मस्त हो गया। तभी मां ने उसके हाथ में पैसे देकर गर्मा गरम जलेबी लाने को कहा। जलेबी की बात सुनकर वह और खुश हो गया। मीठी रस से भरी जलेबी के नाम से ही उसके मुंह में पानी भर आया। खुश होते हुए वह थैला उठाए बाजार की ओर निकल पड़ा। वह सोच मन ही मन सोच रहा था ‘आज बहुत दिनों से घर लौटज्ञ हूं इसलिए मां मेरे लिए जलेबिया मंगवा रही है।
बाजार देखा तो वह दंग रह गया। बंदरू हलवाई की दुकान को जंगल की मुर्गियो ने घेर रखा है। गजब की भीड़ लगी हुई है। बावजूद इसके कि जलेबी के भाव बढ़े हुए है। जिसे देखो हर कोई जलेबी लेने की जल्दी में दिख रहा है। 
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‘‘भई! अचानक ऐसा क्या हो गया कि सभी को जलेबी ही चाहिए?’’ उसने पास खड़े निबलू नेवले से पूछा।
‘‘क्या तुम्हें मालूम नही?’’ उत्तर देने की बजाय निबलू प्रश्न दाग डाला। और इस तरह उसे घूरने लगा जैसे कि वह कोई बेवकूफी भरी बात कर रहा हो? 
‘‘चलो चलो पीछे लाईन में लगो। पंक्ति मत तोड़ो। देर से आते हो और बीच में घुसते हो।’’ कई जानवर उसे देख चिल्लाने लगे। कुछ तो उसे पीछे धकेलने लगे। अजीब सी रेलम-पेलम मची हुई है। इकलू ने बुरासा मंुह बनाया और पीछे जाकर पंक्ति में खड़ा हो गया। दोपहर बाद सका नंबर आया तब तक जलेबिया बिक चुकी थी। उसे थोड़ी जलेबी पर ही संतोष करना पड़ा।
इकलू चूजे को आज एक बात और अजीब दिखी। रास्ते पर आते जाते चलते सभी मुर्गियों ने लाल रंग के कपड़े पहन रखे है। किसी ने लाल रंग के सलवार कुर्ता पहना है तो कोई लाल चुनर ही ओढ़े हुए है। वहां हलवाई की दुकान पर भी सभी मुर्गिया लाल रंग के वस्त्रों में ही नजर आयी। चारांे ओर लाल रंग ही लाल रंग बिखरा हुआ था। इकलू को ध्यान आया कि आज उसकी मां ने भी लाल रंग की साड़ी पहन रखी है। जिसमें वह बहुत संदर लग रही थी।
‘‘लो मां सिर्फ दो ही जलेबी मिल पायी है.....’’ इकलू ने घर जाकर मां को जलेबी थमाते हुए कहा।
‘‘क्या कहा? सिर्फ देा ही जलेबी? हाय! मैं कैसे व्रत करूंगी?’’
‘‘आज कोई विशेष त्यौहार है मां?’’
‘‘बेटा! आज हम सीाी मुर्गियों का ्रत है। यह व्रत हमें लाल कपडत्रे पहनकर जलेबी खाकर ही पूरा करन है।’’
इकलू चकराया ‘‘यह कौनसा व्रत है मां?’’
‘‘यह मंगलकारी सब मनोकामना पूरी करने का वाला व्रत है। अभी कुछ दिन पहले ही एक बाबा ने हम सब मुर्गियों को यह व्रत सुझाया है। दरअसल सब मुर्गिया अपने अंडांे व चूजो के लिए चिन्तित थी। जैसे ही वह अण्डे देती है उनके अण्डे बाजार में बेचने के लिए उठा लिए जाते है। कुछ अण्डों से अगर चूजे निकल भी आये तो वह भी रसोईघर में पहुंच जाते है हलाल होने के लिए।’’
‘‘पर मां यह कोई नई बात तो नहीं। ऐसा तो हमेशा से होता रहा है।’’
‘‘तभी तो बाबा ने हमें तबाही से बचने के लिए यह उपाय सुझाया है। हमें हर रोज ण्डा देने के बाद भी संतान नहीं मिल रही थी।’’
‘कोई व्रत इसे कैसे रोक सकता है?’ इकलू के मन में जिज्ञासा भरा सवाल उठा और वह परोपकारी बाबा को देखने उस विशाल बरगद के नीचे पहुंच गया।
‘‘आओ बेटा इकलू। बड़े दिनो के बाद आये हो। नानी के यहां से अच्छे मोटे होकर लौटे हो।’’
‘अंएं ये क्या?’’ इकलू को बाबा की आवाज जानी पहचानी लगी। इकलू ने अपने दिमाग पर जोर डाला पर कुछ याद नहीं आया। 
‘‘क्या सोच रहे हो बेटा! क्या परीक्षा में फस्र्ट आना चाहते हो?’’
‘इन्हें तो सब मालूम है।’ प्रभावित होते हुए उसने सिर हिलाकर कहा- ‘‘हां बाबा, आपका आर्शीवाद मिले तो संभव हो। वर्ना मेरी बीमारी की वजह से पर्चे तो कुछ खास नहीं हुए है।’’
तो सुनो बेटा तुम आज से ही जलेबिया ंखाकर व्रत करना शुरू कर दो पर हां उत्तम फल पाने के लिए व्रत के साथ लाल रंग के कपड़े पहनना न भूलना।
‘अंएं ये क्या?’ यह सुनकर इकलू चूजा चैंका। सभी को यही व्रत? बाबा ने सभी मुर्गियो से भी यही कहा है। मुझे भी फस्र्ट आने के लिए यही कहा है। कुछ सोचता हुआ इकलू वहां से चल पड़ा। वह सीधा अपने मित्र टिकलू के पास जा पहुंचा और सारी बात कह सुनायी।
टिकलू बोला- ‘‘मुझे तो दाल में कुछकाला नजर आ रहा है।’’
‘‘अरे! मुझे तो पूरी दाल ही काली नजर आ रही है। यह कोई बाबा नहीं धूर्त है  जिसने सभी को धनचक्कर बना रखा है।’’
दोनों मित्र जंगल की टोह लेने चल पड़े। जंगल में जलेबियों और लाल कपड़ों का व्यापार जोरो से चल रहा था। ऊंचे दामो पर लोग जलेबी खरीद रहे थे। जलेबी की मांग बढ़ जाने से मिठाई वाले मनमानी कीमत ले रहे थे और कम तोल रहे थे। दुगनी कीमत लेकर दर्जी लाल वस्त्र सिल रहा था। बाजार में भी लाल कपड़ा धड़ाधड़ बिक रहा था।
‘‘लगता है पैसा कमाने के चक्कर में यह सब चक्कर चलाया गया है। टिकलू ने अपना संशय रखा तो इकलू बोला- ‘‘इस तरह तो मुर्गियों को बेवकूफ बनाया जा रहा है और सब आंख मूंदकर इस बात पर भरोसा कर रहे है।’’
इकलू और टिकलू ने मिलकर अपने मित्र चूजो को एकत्रित किया और इस षड़यंत्र का पर्दाफाश करने की एक योजना बनाई। योजनानुसार चूजों की भीड़ उसविशाल पेड़ की ओर बढ़ने लगी। एकाएक सभी चूजो ने मिलकर बरगद के नीचे बैठे उस बाबा पर हमला बोल दिया। वे उस पर चढ़कर अपनी चोंचे माने लगे। ढ़ोगी वेश में बैठा लोमड़ इस आक्रमण से बौखला कर ओढ़ा लबादा और मुखौटा उतार कर अपने असली वेश में आ गया। शोर सुन जंगल के दूसरे जानवर भी आ चुके थे। लोमड़ की असलियत सभी के समाने थी। सभी जानवर लोमड़ को खदेड़ते हुए शेरसिंह के पास ले गये।
लोमड़ ने अपना अपराध स्वीकार करते हुए कहा कि बन्दरू हलवाई, गरदू दर्जी तथा लंगूरी दरजन सभी ने मिलकर पैसा कमाने के लिए यह योजना बनाई थी। अभी तो केवल इस चक्कर में केवल मुर्गिया ही फंसी थी। उनका इरादा तो ये चक्कर चलाकर जंगल के सभी पशुपक्षियों को ठगने का था। जंगल के कानून के अनुसार सभी ठगों को सजा सुनाई गई। शेरसिंह ने सभी को ललकारते हुए कहा अब कभी ऐसे ठगों के चक्कर में आकर घनचक्कर मत बनना बेवकूफ मुर्गियों।

रविवार, 14 जुलाई 2013

फलों की बात करते तिलचट्टे

 चित्र गूगल से 
यह एक बंद कमरा है। जहां अंधेरा ही अंधेरा है। रेहान एक डरपोक लड़की है। वह बंद कमरे में जाने से डरती है। इसलिए उसे सब डरपोक लड़की कहते है, क्योंकि एक तो उसे अंधेरे से डर लगता है। दूसरे इसमें तिलचट्टे अर्थात काॅकरोच रहते है। जिनकी यहां पूरी काॅलोनी बसी हुई है।
रेहान उन्हें बहुत गौर से देखती है और यह भी जानती है कि अभी शाम होते ही तिलचट्टों का नाच शुरू होने वाला है- सामूहिक नृत्य। कुछ तिलचट्टे संगीत पैदा करेंगे तो कुछ नृत्य में शामिल होंगे। रेहान के लिए यह सब बहुत डरावना है।
 चित्र गूगल से 
 उसकी मुश्किल यह है कि ये केेले के टोकरे उसे इसी बंद कमरे के अंदर रखने है। अब्बू का आदेश जो है। जिसे मानना ही है। बंद कमरे के बाहर उसने कान लगा दिए।
सभी चित्र गूगल से 
तिलचट्टों का नाच शुरू हो गया है। संगीत की आवाज सुनाई दे रही है। कुछ देर तक कान टिकाकर रेहान सुनती रही।
इसके बाद सर्र ऽ सर्र ऽ ऽ करता बंद कमरे का दरवाजा खुला। रोशनी की एक लकीर भीतर घुसी।
भागो...भागो....जान बचाओ....खतरा! तिलचट्टे अपने अपने घरों में दुबकने लगे। उन्हें भागता दुबकता देख रेहान अपनी चीख नहीं रोक सकी। उसने सुना तिलचट्टे कह रहे थे- ‘‘भागो...भागो ... मनुष्य भीतर घुसे है।
- हां मैने भी देखा बड़ा टोकरा उठाए हुए है।
- क्या उन टोकरों में कुछ खाने का सामान है?
- मालूम नहीं, हिम्मत किसकी जो जाकर देखे।
- सुगंध तो अच्छी आ रही है।
- देखो अब शान्त हो जाओ। वो मनुष्य टोकरे में से कुछ रख रहे है।
रेहान पांव दबाकर भीतर बढ़ रही थी। डरे, दुबके तिलचट्टों की खुसर-पुसर उसे फिर सुनाई देने लगी। वे कह रहे थे-
- नाच का कार्यक्रम मनुष्य की वजह से बर्बाद हो गया भैया।
- बहुत बुरा हुआ।
उदास तिलचट्टों का बतियाना जारी था।
- हमें अपनी काॅलोनी में सुखपूर्वक रहने नहीं दिया जाता।
- मनुष्यों की शिकायत होनी चाहिये।
‘शिकायत’ रेहान चैंकी। उसने टोकरा नीचे रखते हुए देखा हर बिल में कुछ न कुछ बात चल रही है। टोकरा खाली कर वह उल्टे पांव लौटी। एक तिलचट्टे ने कमरा बंद होने की सूचना सबको दी। रेहान ने फिर से अपने कान बंद दरवाजे से सटा दिए। ताकि वो तिलचट्टों की बात सुन सके। वे कह रहे थे-
- हे कोई ऐसा बहादुर जो पता करके आये कि टोकरे में क्या सामान लाया गया है? हमारे काम का सामान है या कोई फालतू की चीज। किसी एक तिलचट्टे को ीोजा जाए।
एक पतला किन्तु फुर्तीला तिलचट्टा इसके लिए तैयार हुआ। हरिमो उसका नाम है। वह जितनी फुर्ती से गया उतनी ही जल्दी से टोकरी पर चढ़कर लौट आया। उसने सबको बताया - ‘‘ये टोकरी तो कच्चे केलो से भरी हुई है।’’
 चित्र गूगल से 
- कच्चे केल? ये कैसे कह सकते हो तुम कि केले कच्चे है?
- कच्चा केला हरे रंग का होता है। मैं विज्ञान का विद्यार्थी हूं। सिर पर लगे अपने  सिंगनल देने वाले दोनों एंटीना को झाड़ते हुए हरिमो ने बताया।
यह सुनकर रेहान को बेहद आश्चर्य हुआ।
- तो क्या अब वह हमारे काम के नहीं है हरिमो? नन्हें देशाजू ने पूछा।
- नहीं, देशाजू केले के पकने का इंतजार करना पड़ेगा हमें।
- हरिमो क्या तुम बता सकते हो कि केले पकने में कितने दिन लगेंगे?
- अरे मूर्ख पेड़ से केले टूट चुके है। वे अब कैसे पक सकते है?
- तो फिर केलो को पकने के बाद तोड़ा जाना चाहिये था। रेहान ने झांककर देखा। यह पोपले मुंह वाले पपलू की राय थी।
- क्या यह खाने लायक है?
- क्या हमें इन्हें खाना चाहिए अभी?
मामला कुछ तिलचट्टों को समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए?
- चलो, सब चलते है हरिमो के पिता नरिमो से पूछते है। वो वनस्पिति वैज्ञानिक है। उन्हें सब पता है। रेहान ने तिलचट्टों की एक टुकड़ी को दूसरी ओर जाते हुए देखा। यह वो जगह थी जो थोड़ी साफ, खुली व हवादार थी। हरिमो के पिता नरिमो ने सारी बात पहले समझी कि तिलचट्टो को क्या समझना है। फिर कहने लगे- ‘‘मैं अपने अध्ययन के अनुभव पर कुछ कह सकता हूं। सब इन बिन्दुओं पर ध्यान दो-
*कच्चा केला हरा होता है पर पकने के बाद वह पीला हो जाता है।
 *कच्चा केला फीका होता है पर पक्का केला मीठा।
कच्चा केला हरा होता है पर पकने के बाद वह पीला - चित्र गूगल से 
बहुत बढि़या बात। सब तिलचट्टे खुश होने लगे। कुछ कहने लगे- हमें केले पकने का इंतजार करना पड़ेगा। उनमें से एक तिलचट्टे ने अपने सिर पर बनी दोनो गोल आंखों को घुमाते हुए पूछा- पर केला पकेगा कैसे? नरिमो ने फिर कुछ बिन्दु ध्यान से सुनने के लिए कहे-
 *केले के छिलके में पर्णहरित अर्थात जिसे तुम क्लोरोफिल भी कहते हो, होता है। वही पर्णहरित इनके पकने में मददगार होता है।
 *तुम्हें सबको पता होना चाहिए कि पेड़ से टूटने के बाद भी केले सांस लेते है। छिलके में सूक्ष्म छिद्रो जिसे हमलोग ‘रन्ध्र’ कहते है उससे हवा बाहर आती जाती है। हवा के साथ ही आॅक्सीजन अन्दर जाती है। इस तरह छिलके सांस लेते है और क्लोरोफिल अपना काम करना जारी रखता है। सब पूरे ध्यान से सुनो। अब जो मैं बात बता रहा हूं वह बहुत खास बात है-
 *क्लोरोफिल का काम होता है जरूरी हार्मोन पैदा करके फल के भीतर पहुंचाना। जो वह निरंतर करता रहता है।
 *धीरे धीरे केले का हरा छिलका जो मोटा होता है अब पतला होकर पीला होता जाता है।
हां, यह बिल्कुल सही है एक बूढ़े तिलचट्टे ने कहा। मैंने हरे कच्चे केले और पक्के पीले केले दोनों ही देखे है। नरिमो ने अपनी बात आगे जारी रखते कहा- कुछ बिन्दु और सुनो-
 *क्लोरोफिल या पर्णहरित जो पोषक तत्व केले में डालता है उसी से फल का स्टार्च शूगर में बदल जाता है। इस तरह फीका केला मीठा हो जाता है।
 चित्र गूगल से 
बहुत खूब-2 सब नाचने लगे। क्या ऐसा सब फलों के साथ होता है? एक लंगड़े तिलचट्टे ने पूछा। क्या हमें इनके पककर मीठे होने का इंतजार करना पड़ेगा। आम की तरह ही। कच्चा आम भी तो पककर मीठा हो जाता है। क्या सब फलों के साथ ऐसा होता है?
नहीं, नीबू के साथ तो ऐसा नहीं है। कच्चे नीबू का छिलका हरा और मोटा होता है पर पकने के बाद पीला और पतला हो जाता है, किन्तु उसका रस तो खट्टा ही रहता है। लंगड़े तिलचट्टे ने जब ऐसा कहा तो सब नरिमो का मुंह देखने लगे।
- फलों के रंग बदलने की बात तुमने सही कही। पेड़ पर लगे कई कच्चे फलों का रंग अलग होता है जो पकने के साथ ही बदलता जाता है। ब्लैकबेरी को ही लो। पहले लाल होती है फिर पककर काली हो जाती है।
  पहले लाल होती है फिर पककर काली-चित्र गूगल से 
बड़ा विचित्र संसार है फलों का। इनके रंग और स्वाद बदल जाते है। फिर इनके गुणों में भी बदलाव आ जाता है। पकने के बाद फल खाने लायक और अधिक फायदा देने वाले हो जाते है। जो कुछ मैं जानता था तुम सबको बता दिया। 
रेहान को तिलचट्टों की बाते बड़ी रोचक लगी। ये तो बड़े समझदार है। मैं बेकार ही इनसे डरती हूं। उसने बंद दरवाजे की दरार से झांककर देखना चाहा। धीरे से दरवाजा खोला। दरवाजे के खुलते ही तिलचट्टे फिर भागे। एक नादान तिलचट्टा रेहान के पांव पर चढ़ आया। पांव से होता हुआ फ्राॅक पर जा पहुचा।
उई ऽ आ! उईऽ ऽ रेहान चिल्लाती हुई कूदने लगी। उसका शोर सुन तिलचट्टे डर के मारे फिर इधर उधर दुबकने लगे। रेहान को चिल्लाते देख मां बोली- ‘‘क्या डरपोक लड़की है।’’

रविवार, 4 अप्रैल 2010

दुम दबाकर

काली बिल्ली ने सफेद बिल्ली को देखा और सफेद ने काली को। काली ने खुश होकर सफेद से कहा- ‘‘तुम्हें देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई।’’
‘‘मुझे भी’’ सफेद ने जवाब दिया।
‘‘कहां रहती हो?’’ काली ने पूछा।
‘‘अभी नई-नई आई हूं, रहने की जगह तलाश कर रही हूं।’’
‘‘मेरे घर रहोगी?’’ काली बिल्ली ने उससे आग्रह किया।
‘‘मैं अकेली रहती हूं तुम साथ रहोगी तो अच्छा लगेगा।’’
सफेद बिल्ली खुश होकर काली के साथ उसके घर चल दी। दोनों घर पहुंची।
‘‘वाह! तुम्हारा घर तो बहुत सुन्दर है। क्या खूब तुमने इसे सजाया है। इसमें लाईब्रेरी भी है! क्या कहने।’’ सफेद बिल्ली प्रशंसा करते हुए बोली।
‘‘मुझे पढ़ने का बेहद शौक है। अच्छी किताबे पढ़ना मुझे पसन्द है। तुम बैठो मैं खाने का कुछ लाती हूं।’’ कहती हुई काली बिल्ली रसोई में चली गई।
एक दूसरे को पाकर दोनों बिल्लियां बहुत खुश थी। काली बिल्ली को सफेद बिल्ली का रंग भा गया था और सफेद को काली का करीने से सजा घर। घर में वे सारी सुख-सुविधाएं थी जो वह चाहती थी।
सुबह काली ने सफेद को पुकारा- ‘‘उठो-उठो सुबह हो गई है।’’
‘‘ऊं हूं इतनी जल्दी! अभी थोड़ा सोने दो मुझे....।’’
कुछ देर बाद काली बिल्ली ने फिर सफेद को उठाने का प्रयास किया।‘‘उठो-उठो सफेद रानी, देखो मैं तैयार हो गई और नाश्ता भी ठण्डा हो रहा है...।’’
नाश्ते का नाम सुन सफेद बिल्ली उठ खड़ी हुई।
‘‘ये सुबह-सुबह कहां जाने की तैयारी कर रही हो काली?’’
‘‘चलो मैं तुम्हें भी ले जाना चाहती हूं। अब सुस्ती छोड़ो और फटाफट तैयार हो जाओ।’’
सफेद बिल्ली ने लम्बी जम्हाई ली और हाथ पैर मरोड़ने लगी। यह देख काली बोली- ‘‘उठो नहीं तो मुझे देर हो जायगी।’’
दोनों बिल्लियां तैयार होकर बाहर निकल पड़ी। काली सफेद को अपने खेत पर ले गई, ‘‘ये मेरा खेत है। इस बार मैंने चने की फसल बोई है।’’
सफेद आश्चर्य से आंखे मटकाती हुई बोली- ‘‘आहा! इत्ती बढ़िया फसल ऐसी लहलहाती फसल मैंने पहले कभी नहीं देखी। वाकई तुम बहुत मेहनती हो काली।’’
‘‘हां अब हम दोनों मिलकर काम करेंगी तो और अच्छी-अच्छी फसल बोएंगी। चलो ये फावड़ा लेकर तुम इस सिरे से खुदाई शुरू कर दो और मैं उस सिरे से।’’
सफेद ने बेमन से फावड़ा उठाया। अभी उसने दो-तीन फावड़े मिट्टी में चलाए ही थे कि उसे पसीना छूटने लगा।
‘‘इतनी तेज धूप बर्दाश्त नहीं होती काली।’’
‘‘हां तभी तो जल्दी आ जाती हूं। सुबह कुछ देर काम कर दिन में यहीं थोड़ा सुस्ता लेती हूं। खेती करना आसान काम नहीं है सफेद...।’’
‘‘हां बड़ी मेहनत करनी पड़ती है यह तो मैं देख रही हूं।’’ थोड़ी देर बाद सफेद बिल्ली फावड़ा छोड़ खड़ी हो गई।
‘‘तेज धूप में मेरा सिर दुखने लगा है काली।’’
‘‘लगता है तुम्हें मेहनत करने की आदत नहीं। जाओ, घर जाकर सो जाओ।’’
सफेद बिल्ली खुशी-खुशी घर की ओर चल दी। काली दिन भर खेत पर काम करके जब लौटी तो देखा सफेद बिल्ली बिस्तर पर लेटी किताब पढ़ने में मगन है। काली को देखते ही कहने लगी- ‘‘तुम आ गई, मुझे तो बहुत भूख लग रही है। मारे सिरदर्द के मैं खाना बना ही नहीं पायी।’’ ‘‘अभी बना लेती हूं’’ कहती हुई काली बिल्ली खाना बनाने में जुट गई। प्लेटो में खाना सजाकर उसने सफेद को पुकारा-
‘‘आओ खाना खा ले।’’
‘‘क्या बनाया है।’’ किताब पढ़ते हुए सफेद ने वहीं से पूछा।
‘‘चने के पत्तों की सब्जी, बस आज यहीं बना पायी हूं।’’
‘‘ऊंह! यह भी कोई खाना है।’’
‘‘जल्दी में इतना ही बना पायी। फिर मैं थकी हुई भी थी। सुबह मक्खन-रोटी बना लूंगी।’’
मक्खन-रोटी के नाम से सफेद के मुंह में पानी भर आया ‘चलो आज चने की साग खाकर ही संतुष्ट हो जाएं कल तो मक्खन रोटी मिल रही है न!’ सोचती हुई सफेद बिल्ली उठ खड़ी हुई। दोनों ने खाना खाया और सो गई। काली बिल्ली को सोते ही नींद आ गई पर सफेद सुबह के इन्तजार में करवटे बदलने लगी। उसे सपने में मक्खन रोटी दिखाई देने लगी।
सुबह फिर काली ने सफेद को उठाया। किन्तु सफेद बिल्ली नहीं उठी। कहने लगी- ‘‘रात को देर तक नींद नहीं आयी, अब नींद आ रही है तो थोड़ा जी भर कर सो लूं।’’ यह कहकर उसने चादर में मुंह ढ़क लिया।
काली, सफेद की मक्खन रोटी छोड़ अपने काम पर निकल पड़ी। दिन भर वह खेत में काम करती हुई सफेद बिल्ली का इन्तजार करती रही पर सफेद बिल्ली नहीं आयी।
शाम जब वह घर पहुंची तो देखा सफेद लेटी हुई है। वह चिन्तित होती उसके पास पहुंची- ‘‘क्या हुआ सफेद रानी?’’
‘‘अरी तुम आ गयी! माफ करना भई! आज पेट में बहुत दर्द था इसलिये खेत पर न आ सकी।’’
काली ने चुपचाप खाना बनाया, सफाई की। सफेद लेटी हुई देखती रही।
‘‘आओ खाना तैयार है’’ काली बिल्ली ने उसे पुकारा।
‘‘क्या बनाया है?’’
‘‘आज दो चूहों का शिकार किया था सो मेरे लिये वहीं बनाएं परन्तु तुम्हारे लिये दलिया बनाया है।’’
चूहों के नाम से सफेद के मुंह में पानी भर आया, ‘‘चूहे! सुना है चूहे खाने से पेट दर्द ठीक हो जाता है। ऐसा करो चूहे मैं खा लेती हूं और दलिया तुम खा लो’’ और फटाफट उठकर उसने दोनों चूहे खा लिए। काली से पूछा तक नहींं। अब काली बिल्ली को समझ आ गया था कि सफेद बिल्ली न केवल बहानेबाज है बल्कि आलसी भी है। मेहनत करना नहीं चाहती और अच्छा खाना चाहती है। कोई उपाय करना होगा।
दूसरे दिन काली बिल्ली ने तैयार होते हुए सफेद से कहा- ‘‘आज मेरा जन्मदिन है। मलाई वाली खीर बनाऊंगी। शाम को मेरे सभी मित्र दावत खाने आएंगे। आज जरा खेत पर तुम चली जाओ।’’
मजबूरन सफेद बिल्ली को उठकर खेत पर जाना पड़ा। ‘‘अगर आज उसने कोई बहाना बनाया तो शायद मलाई वाली खीर खाने को न मिले।’’ मन ही मन उसने सोचा।
शाम जब सफेद बिल्ली लौटी तो घर की सजावट देख चौंक उठी। खीर की मीठी सुगन्ध से उसका मन नाच उठा। उसने तेज सांस खींची। खीर की सुगन्ध से उसके मुंह में पानी भर आया।
‘‘आ गई सफेद रानी। जाओ जरा बगीचे से फूल चुन लाओ। मेरे मित्र आते ही होंगे।’’
‘‘ओह!’’ सिवाय काली बिल्ली का कहना मानने के और कुछ उपाय भी तो उसके पास न था। थकी होने के बाद भी वह फूल चुनने निकल पड़ी।
टिंकू खरगोश, पिंकी मेमना, झुंझुन मुर्गा, हरिल तोता, भूरी गौरया सभी मित्र काली बिल्ली को जन्मदिन की बधाई देते हुए एक-एक कर अन्दर आए। काली बिल्ली के लिये सभी कुछ न कुछ उपहार लेकर आये थे। काली ने सभी मित्रों से सफेद का परिचय कराया।
दावत शुरू होने से पहले सफेद बिल्ली बोली- ‘‘मित्रों आप सभी जन्मदिन का कोई न कोई उपहार लेकर आये है परन्तु मैं उपहार में एक खेल लेकर आई हूं। सबके मनोरजंन के लिए।
‘‘कौनसा खेल?’’ सभी एकसाथ बोल उठे।
‘‘लुका छिपी का खेल है यह। मैं आंख बंद करूंगी तब सब छिप जायेंगे। जब मैं आंखे खोलूंगी तो सबको ढूंढूगी।’’
‘‘आहा! बड़ा अनूठा खेल है। मैंने तो पहले कभी नहीं खेला।’’
सभी खेल के लिए उत्सुक थे। सफेद बिल्ली सभी को छिपने के लिए कहकर बोली- ‘‘पहले खेल होगा फिर दावत का आनंद होगा’’ इतना कह वह रसोई में चली गई और गिनती बोलने लगी। एक...दो...तीन...तभी उसकी नजर खीर पर गयी। वह गिनती भूल खीर चाटने लगी। ‘‘वाह! बहुत स्वादिष्ट खीर बनी है।’’ जबान फिरा उसने होठो को साफ किया।
उसने दुबारा भगोने में मुंह डाला और चाटने लगी तभी ‘धड़ाम’ से भगौना नीचे गिर पड़ा। गिरने की आवाज सुन सभी अन्दर दौड़े आए।
सफेद बिल्ली रंगे हाथों पकड़ी गई थी। शर्म से वह पानी-पानी हो गई, उसका बुरा हाल था। वह दुम दबाकर वहां से भाग जाना चाहती थी किन्तु वह नीचे और खीर का भगौना उसके उपर औंधा गिरा हुआ था। रसोई के दरवाजे पर सभी खड़े उसे घूर रहे थे। उन सबमें काली बिल्ली भी थी और उससे आंख मिलाने की तो उसमें हिम्मत ही नहीं बची थी। अब? उसने किसी तरह से भगोने के नीचे से खुद को निकाला और चुपचाप सिर झुकाये दुम दबाकर घर से बाहर निकल जाने में ही अपनी खैर समझी। जाते-जाते उसके कानों में आवाज गिरी, ‘‘जाने दो मक्कार को। ये हमारे साथ रहने के काबिल नहीं।’’
टांग के दर्द से वह लंगड़ाती चली जा रही थी। किन्तु इस दर्द से ज्यादा अपनी बुरी आदत के कारण इतना अच्छा घर और मित्र छूट जाने का उसे बेहद अफसोस था। उसके बारे में कहे गये मित्रों के शब्द कानों में लगातार गूंज रहे थे। उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे।

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

बात छोटी सी

टीटू गिलहरी और चिंकी चिड़िया दोनों पड़ोसिन थी। टीटू का घर पेड़ की खोखल था और चिंकी का घोंसला पेड़ की शाखाओं पर। चिंकी जब दाना चुगने जाती तब टीटू सभी बच्चों का ध्यान रखती।
एक दिन बच्चे आपस में झगड़ने लगे। टीटू के बच्चों का कहना था कि पेड़ उनका है। चिंकी के बच्चे भी यही बात दोहरा रहे थे कि पेड़ उनका है।
लड़ते-लड़ते बच्चों में झगड़ा बढ़ गया। टीटू के बच्चों ने चिंकी के बच्चों के शरीर में अपने पंजे चुभा दिए तो चिंकी के बच्चों ने टीटू के बच्चों की पूंछ खींच ली। टीटू के बच्चे दर्द से चिल्लाने लगे। चिंकी के बच्चों के भी खून बहने लगा यह देख टीटू उन्हें समझाने लगी -
‘‘हम पड़ौसी है। हमें मिलजुल कर रहना चाहिए....’’
‘‘किन्तु मां चिंकी चिड़िया के बच्चे सब फलों को झूठा कर देते हैं, भला हम झूठे फल क्यों खाएं, जबकि पेड़ हमारा है।’’ टीटू के बच्चे एक स्वर में बोले।
‘‘तुम कैसे कह सकते हो कि ये पेड़ तुम्हारा है?’’ चिंकी के बच्चों ने प्रश्न किया।
हम पेड़ के तने में रहते है। हमारा जन्म इसी खोखल में हुआ। पेड़ का तना हमारा तो शाखाएं हमारी। शाखाएं हमारी तो फल हमारे। टीटू के बच्चों ने जवाब दिया।
यह सुन चिंकी के बच्चे फुर्र से उड़कर शाखाओं पर जा बैठे और कहने लगे पेड़ हमारा है। इसकी टहनियों पर हमारा बसेरा है। इस पर हमारा नीड़ बना हुआ है। जिसमें हमने आंखे खोली। हम तुम्हे टहनियों तक नहीं आने देंगे और न ही इसके फल खाने देंगे।
टीटू गिलहरी यह सुन बड़ी परेशान हुई। बच्चे लड़ाई पर उतारू थे और एक दूसरे को पेड़ से भगाना चाहते थे। वह उन्हें समझाने लगी-
बच्चों, मेरी बात सुनो। बात उस समय की है जब तुम लोगों का जन्म भी नहीं हुआ था। मैंने और चिंकी ने अण्डे दिए अभी एक दिन भी नहीं गुजरा था कि आसमान में अंधेरा छा गया। तेज हवाएं चलने लगी। डर के मारे चिंकी शोर मचाने लगी। उसे डर था कि शाखाएं हिलने से उसका घोसला नीचे गिर जाएगा। घोंसला गिर जाएगा तो फिर उसमें रखे अण्डे भी गिर कर फूट जायेगे।
तब मैंने और चिंकी ने मिलकर अण्डों को खोखल में सुरक्षित रख दिए। अभी कुछ देर हुई थी कि पानी बरसने लगा। पानी इतना बरसा, इतना बरसा कि नीचे बहता हुआ पानी हमारे घर तक पहुंचने लगा।
हमें फिर चिंता होने लगी। हमारा घर डूब गया तो ये पानी अण्डे बहा ले जायगा। तब मैंने और चिंकी ने मिलकर सभी अण्डों को घोंसले में पहुंचाया। फिर हम दोनों ने पत्तों से घोंसले को ढक दिया। जैसे-तैसे रात बीती। सुबह पौ फटने के बाद हमने राहत की सांस ली। बरसात बंद हो चुकी थी। देखा बच्चों हमने एक दूसरे के सहारे आंधी बरसात को झेला था। तब से अब तक हम अच्छे पड़ौसियों की तरह आपस में मदद करते आये हैं।
‘‘पड़ौसी एक दूसरे के काम आते हैं और सुख-दुख के साथी है बच्चों।’’ अब तक चिंकी चिड़िया भी दाना चुगकर लौट आयी थी। सभी बच्चों में बराबर अनाज के दाने बांटते हुए बोली।
परन्तु बच्चे कहने लगे, चिंकी चिड़िया को यह पेड़ छोड़ना होगा। अपने बच्चों के साथ कहीं ओर चली जाए। चिंकी के बच्चे भी यही बात अपनी मां के सामने दोहरा रहे थे।
दोनों की माताएं समझा-समझाकर थक गई पर बच्चे नहीं माने। अपनी-अपनी जिद पर अड़े रहे। अंत में टीटू और चिंकी दोनों ने पेड़ छोड़ने का मन में विचार बना लिया।
उधर बिल में छिपा सांप कब से यह तमाशा देख रहा था। आज उचित मौका देखकर वह बाहर निकला और पेड़ पर चढ़ने लगा। उसने सोचा पहले गिलहरी के बच्चों को निगलेगा फिर चिड़िया के बच्चों को। बहुत दिनों से वह इनके नरम नरम मांस खाने की फिराक में था किन्तु इनकी मैत्री को देखते हुए यह संभव नहीं हो रहा था।
सांप को पेड़ के तने पर चढ़ते हुए चिंकी चिड़िया ने देख लिया। वह जोर से चिल्लाई,
सावधान टीटू बहन, सांप ऊपर आ रहा है। अपने बच्चों को बचाना। ‘‘उन्हें मेरे घोंसलें में छिपा दो’’ - कहने के बाद वह पेड़ के तने पर चोंचे मारने लगी।
जहां जहां चिंकी की चोंच लगी पेड़ से गाढ़ा चिपचिपा दूध बहने लगा। चिपचिपे गोंद के कारण सांप का पेड़ पर चढ़ना मुश्किल होने लगा। इधर टीटू ने एक-एक कर सभी बच्चों को चिंकी के घोंसले में पहुंचा दिया। चिंकी के साथ उसके बच्चे भी मदद कर रहे थे। हालांकि अभी उनकी चोंचे नर्म और नाजुक थी।
थक हार कर सांप वापस बिल में लौट गया। किन्तु अभी खतरा टला नहीं था। कलुवा कौवे ने जब एक ही घोंसले में इतने सारे बच्चे देखे तो उसने आक्रमण कर दिया। टीटू और चिंकी ने कौवे से जमकर मुकाबला किया और उसे मार भगाया।
टीटू और चिंकी के बच्चों ने एकता की ताकत को देख लिया था और साथ ही में पड़ौसी के महत्त्व को भी समझ लिया था। अब उन्हें मां के समझाने की जरूरत नहीं थी। उनकी लड़ाई खत्म हो चुकी थी। वे सब पहले जैसे मिलजुल कर रहने लगे।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

नटखट तितली

नटखट तितली की मां बीमार थी। वह फूलों का मकरंद लाने में असमर्थ थी। मां की यह स्थिति देख नटखट तितली बोली- ‘‘मां आप आराम करो। आज मैं फूलों का मकरंद ले आऊंगी।’’
‘‘जरूर जाओ बेटी, पर सुन्दर-ताजे, खुशबू वाले फूलों का मकरंद ही चुनना, साथ ही जरा तितली पकड़ने वाले बच्चों से सावधान भी रहना।’’ मां की बात पूरी सुने बिना ही नन्हीं नटखट तितली अपने रंग-बिरंगे पंख फैला कर उड़ चली। बगीचे में रंग-बिरंगे फूल खिले थे। यह देख तितली खुशी से झूम उठी। ‘‘आ हा! कितने सुन्दर फूल! कमाल की खुशबू है इनमें!’’ वह सफेद फूलों की ओर बढ़ी और उन पर मंडराते हुए गाने लगी-
‘‘मैं अलबेली,
तितली मतवाली,
फूलों का मकरंद
चुनने को आई।’’
‘‘तुम्हारा क्या नाम है महकदार फूलों?’’
‘‘हम चमेली के फूल हैं।’’
अलबेली तितली के स्वागत में चमेली के फूलों ने अपनी पंखुड़ियां फैला दीं। वह चमेली के फूलों का मकरंद चखने ही वाली थी कि उसकी नजर पीले-पीले हवा में झूमते हुए फूलों पर पड़ी। वह चमेली के फूलों को छोड़ उनकी ओर उड़ चली।
‘‘कहां चली ओ अलबेली मतवाली?’’ फूलों ने पुकारा।
‘‘कल फिर आऊंगी, अलविदा चमेली।’’ यह कह कर नटखट तितली अब पीले फूलों पर मंडराते हुए गीत गुनगुनाने लगी। फिर धीरे से उनके कान में बोली-
‘‘तुम बहुत सुन्दर हो, क्या नाम है तुम्हारा?’’
‘‘हम गेंदे के फूल हैं।’’
‘‘मैं तुम्हारा मकरंद लेने आयी हूं।’’
तितली के स्वागत में फूलों ने अपनी पंखुड़ियां फैला दीं। ‘‘लो हमारा मीठा-मीठा मकरंद ले जाओ अलबेली।’’ नटखट तितली गेंदे के फूलों पर बैठने वाली ही थी कि उसकी नजर चम्पई रुग के फूलों पर पड़ी। वह अपना प्रलोभन रोक नहीं सकी और उनकी तरफ उड़ चली।
‘‘कहां चली ओ अलबेली मतवाली, हमारा मकरंद लेती जाओ!’’
‘‘मैं कल फिर आऊंगी।’’ यह कह कर तितली चम्पई फूलों की ओर बढ़ गई। उन्हें भी वह वहीं गीत सुनाने लगी। फिर कुछ रूक कर बोली- ‘‘आ हा! क्या तेज महक है तुम्हारी, तुम कौनसा फूल हो?’’
‘‘मैं चम्पा का फूल हूं।’’
‘‘मैं तुम्हारा मकरंद लेने आई हूं।’’
‘‘तुम्हारा स्वागत है, जितना चाहे मीठा-मीठा मकरंद ले लो। तभी उसकी नजर गुलाबी फूलों पर पड़ी। दरअसल बाग के खूबसूरत सुगंधित फूलों के बीच वह भ्रमित-सी हो गई थी।
‘‘कल फिर आऊंगी अलविदा!’’ यह वायदा करती तितली गुलाबी फूलों पर मंडराने लगी।
‘‘भीनी भीनी महक वाले सुन्दर फूल! तुम्हारा क्या नाम है?’’
‘‘हम गुलाब हैं, यहां के राजा!’’
‘‘मैं तुम्हारा मकरंद ले जा सकती हूं।’’
तितली के रंग-बिरंगे पंखों से खुश होकर गुलाब ने हंसकर ‘हां’ कर दी।
‘‘तुम बहुत सुन्दर हो मतवाली!’’ गुलाब से अपनी प्रशंसा सुनकर नटखट तितली झूम उठी। गुलाब की खुशबू से मस्त होकर फूलों पर थिरकने लगी। हवा में लहरा-लहरा कर चक्कर लगाने लगी कि किसी गुलाब का मकरंद ले जाऊं। इतने में एक नटखट गुलाब ने अपना कांटा तितली के पंखों में चुभो दिया।
‘‘उई मां!’’ नटखट तितली चिल्ला उठी। उसकी आवाज सुनकर बगीचे में खेल रहे बच्चे आ पहुंचे। जैसे ही तितली ने उन्हें देखा वह सिर पर पांव रख कर भागी। वह आगे-आगे और बच्चे पीछे-पीछे दौड़ रहे थे।
बच्चों से जान बचा कर वह हांफती हुई घर पहुंची। ‘‘ले आई मकरंद अलबेली!’’ मां बोली।
‘‘नहीं मां, वहां बगीचे में एक-से-एक सुन्दर फूल मुझे बुलाने लगे। सभी अपना मकरंद मुझे देना चाहते थे। फूल कभी अपने रंगों से लुभाते तो कभी अपनी खुशबू से मोहित करते।’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’ मां ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘मां मैं बारी-बारी से सभी फूलों पर मंडरा कर उनका आनंद ले रही थी। अंत में मुझे फूलों का राजा गुलाब पसंद आया। सबसे सुन्दर गुलाब मैं चुन ही रही थी कि एक गुलाब ने अपना कांटा मेरे पंखों में चुभो दिया।’’
दर्द से कहराती नटखट तितली अपने पंख खोलने और समेटने लगी।
‘‘ओह मेरी बच्ची!’’
‘‘मेरी आवाज सुन शरारती बच्चों का झुंड पकड़ने आ पहुंचा। उनसे बचकर भाग आई। मां मैं तुम्हारे लिए फूलों का मकरंद नहीं ला सकी।’’ आंखों में आंसू भर कर नन्हीं तितली बोली।
‘‘कोई बात नहीं अलबेली, परन्तु मेरी बात ध्यान से सुनो। जीवन में हमें बहुत-सी वस्तुएं आकर्षित करती मिलेंगी किन्तु अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए मन को स्थिर करना चाहिए। उसे इधर-उधर भटकाने नहीं देना चाहिए। न ही किसी प्रलोभन में आना चाहिए। तभी हम अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकते है। जाओ कल फिर कोशिश करना।’’ मां उसे पुचकारते हुए बोली।